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________________ छहढाला का सार छठा प्रवचन ११२ आप उनके उत्सवों में जाते हैं, उत्साह से प्रवचन भी करते हैं और इन सबमें सामिल भी होते हैं - इसे क्या समझा जाये ? यही कि यदि हम उक्त उत्सवों में न जाये तो हमें यह बात कहने का अवसर भी कब मिलेगा ? अपनी बात जन-जन तक पहुँचाने का एकमात्र यही तो उपाय है। यदि हम नहीं गये तो फिर तो उक्त विचारधारा का ही बोलबाला हो जायेगा। उक्त विकृतियों पर प्रश्नचिह्न खड़ा करनेवाला भी कोई नहीं रहेगा। हमारी यह बात आपको कैसी लगी ? यदि आपको ठीक लगती है तो हमारा प्रयोजन सिद्ध हो गया। यदि कोई नहीं बोलेगा, नहीं लिखेगा; तो सत्य सामने कैसे आयेगा, सत्य का प्रचार कैसे होगा? आप इसके फल से भी परिचित होंगे, क्या-क्या हो सकता है इसका परिणाम ? है आपको इसका कुछ अनुमान ? क्यों नहीं, पर अब तो हम किनारे पर ही आ गये हैं। यदि कोई नहीं बुलायेगा तो आने-जाने के श्रम से बचेंगे, धूल-मिट्टी के दूषित वातावरण से बचेंगे; लिखने-पढ़ने के लिये और अधिक समय मिलेगा। जो कुछ भी हो सकता है; उस सबके लिये हम पूरी तरह तैयार हैं। यद्यपि ३ गुप्तियाँ २८ मूलगुणों में नहीं हैं; तथापि वे १३ प्रकार के चारित्र में सामिल हैं। ५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति - यह १३ प्रकार सकल चारित्र कहा गया है। चूँकि यहाँ सकल चारित्र का वर्णन चल रहा है; अत: गुप्तियों की चर्चा भी न्यायोपात्त है। यही कारण है कि दौलतरामजी ५ महाव्रतों और ५ समितियों की चर्चा करने के उपरान्त ३ गुप्तियों की चर्चा करते हैं; जो इसप्रकार है - सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय, आतम ध्यावते। तिन सुथिर मुद्रा देख मृगगण, उपल खाज खुजावते ।। जब वे मुनिराज मन, वचन और काय का भलीभाँति निरोध करके ११३ अपने आत्मा का ध्यान करते हैं, तब वे आत्मा में ऐसे निमग्न हो जाते हैं कि पत्थर की मूर्ति के समान स्थिर मुद्रा को देखकर, उनकी देह को पत्थर समझ कर हिरण अथवा जंगली पशु अपनी खाज खुजाने लगते हैं। ___ आत्मध्यान के काल में वाणी से तो कुछ बोलना होता ही नहीं है, उन्हें बोलने का विकल्प भी नहीं रहता है; काया भी ऐसी स्थिर हो जाती है कि मानो पत्थर की मूर्ति ही विराजमान हो और मन भी पूर्णत: अन्तरमुखी हो जाता है, मन के निमित्त से आत्मा में उठनेवाली विकल्पतरंगे शान्त हो जाती हैं। उनकी इस स्थिति को मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति कहते हैं। ___चौथे छन्द की अन्तिम दो पंक्तियाँ पंचेन्द्रिय विजय के सन्दर्भ में हैं; जो इसप्रकार हैं - रस रूप गंध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने । तिनमें न राग विरोध, पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ।। सकल चारित्र के धनी मुनिराज पंचेन्द्रियों के विषय - स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द - यदि सुहावने हों तो उनमें राग नहीं करते और असुहावने हों तो द्वेष नहीं करते; इसलिये वे मुनिराज पंचेन्द्रिय विजयी हैं। ___ क्या कोई मुनिराज ऐसा कह सकते हैं कि यह स्थान कितना रमणीक है, देखकर तबियत प्रसन्न हो गई। कैसी सुगन्धित पवन मन्द-मन्द चल रही है, मौसम कितना अच्छा है, न अधिक सर्दी और न अधिक गर्मी। कहते हैं यहाँ बारहों महिने ऐसा ही मौसम रहता है, न कोई शोर-गुल, न किसी प्रकार का प्रदूषण । लगता है शेष जीवन यहीं बिताया जाय। नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि मुनिराज पाँच इन्द्रियों को जीतनेवाले होते हैं और उक्त वाक्यावली में पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति अनन्य लालसा व्यक्त हो रही है। अब मुनिराजों को प्रतिदिन करने योग्य ६ आवश्यक और शेष ७ गुणों की चर्चा करते हैं - (57)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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