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________________ छहढाला छठवीं ढाल अन्वयार्थ :- (यह) यह (राग-आग) रागरूपी अग्नि (सदा) अनादिकाल से निरन्तर जीव को (दहै) जला रही है, (तात) इसलिये (समामृत) समतारूप अमृत का (सेइये) सेवन करना चाहिए। (विषय-कषाय) विषय-कषाय का (चिर भजे) अनादिकाल से सेवन किया है (अब तो) अब तो (त्याग) उसका त्याग करके (निजपद) आत्मस्वरूप को (बेइये) जानना चाहिए - प्राप्त करना चाहिए। (पर पद में) परपदार्थों में - परभावों में (कहा) क्यों (रच्यो) आसक्तसन्तुष्ट हो रहा है? (यहै) यह (पद) पद (तेरो) तेरा (न) नहीं है। तू (दुख) दुःख (क्यों) किसलिये (सहै) सहन करता है? (दौल!) हे दौलतराम! (अब) अब (स्वपद) अपने आत्मपद - सिद्धपद में (रचि) लगकर (सुखी) सुखी (होउ) होओ! (यह) यह (दाव) अवसर (मत चूकौ) न गँवाओ! भावार्थ :- यह राग (मोह, अज्ञान) रूपी अग्नि अनादिकाल से निरन्तर संसारी जीवों को जला रही है - दुःखी कर रही है इसलिये जीवों को निश्चयरत्नत्रयमय समतारूपी अमृत का पान करना चाहिए, जिससे राग-द्वेष मोह (अज्ञान) का नाश हो। विषय-कषायों का सेवन विपरीत पुरुषार्थ द्वारा अनादिकाल से कर रहा है। अब उसका त्याग करके आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करना चाहिए। तू दुःख किसलिये सहन करता है? तेरा वास्तविक स्वरूप अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और अनन्तवीर्य है, उसमें लीन होना चाहिए। ऐसा करने से ही सच्चा-सुख मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इसलिये हे दौलतराम! हे जीव! अब आत्मस्वरूप को प्राप्त कर! आत्मस्वरूप को पहिचान! यह उत्तम अवसर बारम्बार प्राप्त नहीं होता, इसलिये इसे न गँवा । सांसारिक मोह का त्याग करके मोक्षप्राप्ति का उपाय कर! यहाँ विशेष यह समझना कि - जीव अनादिकाल से मिथ्यात्वरूपी अग्नि तथा राग-द्वेषरूप अपने अपराध से ही दुःखी हो रहा है, इसलिये अपने यथार्थ पुरुषार्थ से ही सुखी हो सकता है। ऐसा नियम होने से जड़कर्म के उदय से या किसी पर के कारण दुःखी हो रहा है अथवा पर के द्वारा जीव को लाभ-हानि होते हैं - ऐसा मानना उचित नहीं है।।१५ ।। ग्रन्थ-रचना का काल और उसमें आधार इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुक्ल वैशाख । कर्यो तत्त्व-उपदेश यह, लखि बुधजन की भाख ।। लघु-धी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव-कूल ।।१६।। भावार्थ :- पण्डित बुधजनकृत 'छहढाला के कथन का आधार लेकर मैंने (दौलतराम ने) विक्रम संवत १८९१, वैशाख शुक्ला ३ (अक्षय तृतीया) के दिन इस छहढाला ग्रन्थ की रचना की है। मेरी अल्पबुद्धि तथा प्रमादवश उसमें कहीं शब्द की या अर्थ की भूल रह गई हो तो बुद्धिमान उसे सुधारकर पढ़ें, ताकि जीव संसार-समुद्र को पार करने में शक्तिमान हो। छठवीं ढाल का सारांश जिस चारित्र के होने से समस्त परपदार्थों से वृत्ति हट जाती है, वर्णादि तथा रागादि से चैतन्यभाव को पृथक् कर लिया जाता है - अपने आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा द्वारा, अपने आत्मा का ही अनुभव होने लगता है; वहाँ नय, प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी, ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदों का किंचित् विकल्प नहीं रहता; शुद्ध उपयोगरूप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य का ही अनुभव होने लगता है, उसे १. इस ग्रन्थ में छह प्रकार के छन्द और छह प्रकरण हैं, इसलिये तथा जिसप्रकार तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार को रोकनेवाली ढाल होती है, उसीप्रकार जीव को अहितकारी शत्रु-मिथ्यात्व, रागादि, आस्रवों का तथा अज्ञानांधकार को रोकने के लिए ढाल के समान यह छह प्रकरण हैं; इसलिये इस ग्रन्थ का नाम छहढाला रखा गया है।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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