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________________ छहढाला छठवीं ढाल अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप हूँ; मुझमें कोई रागादिक भाव नहीं हैं; मैं ही साध्य हूँ, मैं ही साधक हूँ और कर्म तथा कर्मफल से पृथक् हूँ। मैं ज्ञान-दर्शन-चेतनास्वरूप निर्मल ऐश्वर्यवान तथा अखण्ड, सहज शुद्ध गुणों का भण्डार और पुण्य-पाप से रहित हूँ। तात्पर्य यह है कि सर्व प्रकार के विकल्पों से रहित निर्विकल्प आत्मस्थिरता को स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं।।१०।। स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहन्त दशा यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रकैं नाहीं कह्यो ।। तब ही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो। सबलख्यो केवलज्ञानकरि, भविलोक को शिवमग कहो।।११।। समस्त पदार्थों के सर्वगुण तथा पर्यायों को (लख्यो) प्रत्यक्ष जान लेते हैं, तब (भविलोक को) भव्यजीवों को (शिवमग) मोक्षमार्ग (कह्यो) बतलाते हैं। भावार्थ :- इस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनिराज जब उपर्युक्तानुसार चितवन - विचार करके आत्मा में लीन हो जाते हैं; तब उन्हें जो आनन्द होता है, वैसा आनन्द इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र (चक्रवर्ती) या अहमिन्द्र (कल्पातीत देव) को भी नहीं होता । यह स्वरूपाचरणचारित्र प्रकट होने के पश्चात् स्वद्रव्य में उग्र एकाग्रता से - शुक्लध्यानरूप अग्नि द्वारा - चार घातिकर्मों का नाश होता है और अरिहन्त दशा तथा केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, जिसमें तीनकाल और तीनलोक के समस्त पदार्थ स्पष्ट ज्ञात होते हैं और तब भव्यजीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं।।११।। अन्वयार्थ :- [स्वरूपाचरणचारित्र में] (यों) इसप्रकार (चिन्त्य) चितवन करके (निज में) आत्मस्वरूप में (थिर भये) लीन होने पर (तिन) उन मुनियों को (जो) जो (अकथ) कहा न जा सकें - ऐसा - वचन से पार - (आनंद) आनंद (लह्यो) होता है (सो) वह आनन्द (इन्द्र) इन्द्र को, (नाग) नागेन्द्र को, (नरेन्द्र) चक्रवर्ती को (वा अहमिन्द्र को) या अहमिन्द्र को (नाहीं कहो) कहने में नहीं आया - नहीं होता। (तब ही) वह स्वरूपाचरणचारित्र प्रकट होने के पश्चात् जब (शुकल ध्यानाग्नि करि) शुक्लध्यानरूपी अग्नि द्वारा (चउघाति विधि कानन) चार घातिकर्मोंरूपी वन (दह्यो) जल जाता है और (केवलज्ञानकरि) केवलज्ञान से (सब) तीनकाल और तीनलोक में होनेवाले १. घातिकर्म दो प्रकार के हैं - द्रव्य-घातिकर्म और भाव-घातिकर्म । उनमें शुक्लध्यान द्वारा शुद्ध दशा प्रकट होने पर भाव-घातिकर्मरूप अशुद्ध पर्यायें उत्पन्न नहीं होतीं, वह भावघातिकर्म का नाश है तथा उसीप्रकार द्रव्य-घातिकर्म का स्वयं अभाव होता है, वह द्रव्य-घातिकर्म का नाश है। 74
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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