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________________ १३४ छहढाला छठवीं ढाल उसे निर्जरा का - तप का भी सच्चा श्रद्धान नहीं है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २३३, टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)। प्रश्न :- क्रोधादिक का त्याग और उत्तम क्षमादि धर्म कब होता है? उत्तर :- बन्धादि के भय से अथवा स्वर्ग-मोक्ष की इच्छा से (अज्ञानी जीव) क्रोधादिक नहीं करता, किन्तु वहाँ क्रोध-मानादि करने का अभिप्राय तो गया नहीं है। जिसप्रकार कोई राजादि के भय से अथवा बड़प्पन-प्रतिष्ठा के लोभ से परस्त्री सेवन नहीं करता तो उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता, उसीप्रकार यह भी क्रोधादि का त्यागी नहीं है । तो फिर किसप्रकार त्यागी होता है? - कि पदार्थ इष्ट-अनिष्ट भासित होने पर क्रोधादि होते हैं, किन्तु जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयं क्रोधादिक की उत्पत्ति नहीं होती और तभी सच्चे क्षमादि धर्म होते हैं । (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २२९ - टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)। (४) अब, आठवें छन्द में स्वरूपाचरणचारित्र का वर्णन करेंगे, उसे सुनो कि जिसके प्रकट होने से आत्मा की अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि शक्तियों का पूर्ण विकास होता है और परपदार्थ की ओर की सर्वप्रकार की प्रवृत्ति दूर होती है - वह स्वरूपाचरणचारित्र है। स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया। वरणादि अरु रागादित निज भाव को न्यारा किया ।। निजमाहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मँझार कछु भेद न रह्यो ।।८।। अन्वयार्थ :- (जिन) जो वीतरागी मुनिराज (परम) अत्यन्त (पैनी) तीक्ष्ण (सुबुधि) सम्यग्ज्ञान अर्थात् भेदविज्ञानरूपी (छैनी) 'छैनी (डारि) पटककर (अन्तर) अन्तरंग में (भेदिया) भेद करके (निजभाव को) आत्मा के वास्तविक स्वरूप को (वरणादि) वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्शरूप द्रव्यकर्म से (अरु) और (रागादित) राग-द्वेषादिरूप भावकर्म से (न्यारा किया) भिन्न करके (निजमाहि) अपने आत्मा में (निज के हेतु) अपने लिए (निजकर) अपने द्वारा (आपको) आत्मा को (आप) स्वयं अपने से (गह्यो) ग्रहण करते हैं; तब (गुणी) गुण, (गुणो) गुणी, (ज्ञाता) ज्ञाता, आत्मा में (ज्ञेय) ज्ञान का विषय और (ज्ञान मँझार) ज्ञान में (कछु भेद न रह्यो) किंचित्मात्र भेद [विकल्प] नहीं रहता। भावार्थ :- जिसप्रकार कोई पुरुष तीक्ष्ण छैनी द्वारा पत्थर आदि के दो भाग पृथक्-पृथक् कर देता है, उसीप्रकार स्वरूपाचरणचारित्र का आचरण करते समय वीतरागी मुनि अपने अन्तरंग में भेदविज्ञानरूपी छैनी द्वारा अपने आत्मा के स्वरूप को द्रव्यकर्म से तथा शरीरादिक नोकर्म से और रागद्वेषादिरूप भावकर्मों से भिन्न करके अपने आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा को स्वयं जानते हैं; तब उनके स्वानुभव में गुण, गुणी तथा ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय - ऐसे कोई भेद नहीं रहते ।।८।। स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प.वच भेद न जहाँ। चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ।। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा। प्रकटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा ।।९।। १. जिसप्रकार छैनी लोहे को काटकर दो टुकड़े कर देती है, उसीप्रकार शुद्धोपयोग कर्मों को काटता है और आत्मा से उन कर्मों को पृथक् कर देता है।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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