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________________ १२६ छहढाला छठवीं ढाल १२७ रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने; तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने ।।४।। अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि (सुकुल) उत्तम कुलवाले (श्रावकतनैं) श्रावक के घर और (रसन को) छहों रस अथवा एक-दो रसों को (तजि) छोड़कर (तन) शरीर को (नहिं पोषते) पुष्ट न करते हुए - मात्र (तप) तप की (बढ़ावन हेतु) वृद्धि करने के हेतु से [आहार के] (छ्यालीस) छियालीस (दोष बिना) दोषों को दूर करके (अशन को) भोजन को (लैं) ग्रहण करते हैं । (शुचि) पवित्रता के (उपकरण) साधन कमण्डल को (ज्ञान) ज्ञान के (उपकरण) साधन शास्त्र को तथा (संयम) संयम के (उपकरण) साधन पीछी को (लखिकैं) देखकर (गहैं) ग्रहण करते हैं [और] (लखिकैं) देखकर (धरै) रखते हैं [और] (तन) शरीर का (मल) विष्टा (मूत्र) पेशाब (श्लेष्म) थूक को (निर्जन्तु थान) जीव रहित स्थान (विलोकि) देखकर (परिहरैं) त्यागते हैं। __ भावार्थ :- वीतरागी जैन मुनि-साधु उत्तम कुलवाले श्रावक के घर, आहार के छियालीस दोषों को टालकर तथा अमुक रसों का त्याग करके [अथवा स्वाद का राग न करके शरीर को पुष्ट करने का अभिप्राय न रखकर, मात्र तप की वृद्धि करने के लिए आहार ग्रहण करते हैं; इसलिये उनको (३) एषणासमिति होती है। पवित्रता के साधन कमण्डल को, ज्ञान के साधन शास्त्र को और संयम के साधन पीछी को-जीवों की विराधना बचाने हेत देखभाल कर रखते हैं तथा उठाते हैं। इसलिये उनको (४) आदान-निक्षेपण समिति होती है। मल-मूत्र-कफ आदि शरीर के मैल को जीवरहित स्थान देखकर त्यागते हैं; इसलिये उनको (५) व्युत्सर्ग अर्थात् प्रतिष्ठापन समिति होती है।।३।। मुनियों की तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय सम्यक प्रकार निरोध मन वच काय, आतम ध्यावते: तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते । १. आहार के दोषों का विशेष वर्णन “अनगार धर्मामृत" तथा "मूलाचार" आदि शास्त्रों में देखें। उन दोषों को टालने हेतु दिगम्बर साधुओं को कभी महीनों तक भोजन न मिले, तथापि मुनि किंचित् खेद नहीं करते; अनासक्त और निर्मोह-हठरहित सहज होते हैं। (कायर मनुष्यों - अज्ञानियों को ऐसा मुनिव्रत कष्टदायक प्रतीत होता है, ज्ञानी को वह सुखमय लगता है।) अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि] (मन वच काय) मन-वचन-काया का (सम्यक् प्रकार) भलीभाँति (निरोध) निरोध करके, जब (आतम)अपने आत्मा का (ध्यावते) ध्यान करते हैं, तब (तिन) उन मुनियों की (सुथिर) सुस्थिर-शांत (मुद्रा) अवस्था (देखि) देखकर, उन्हें (उपल) पत्थर समझकर (मृगगण) हिरन अथवा चौपाये प्राणियों के समूह (खाज) अपनी खाजखुजली को (खुजावते) खुजाते हैं। [जो] (शुभ) प्रिय और (असुहावने) अप्रिय [पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी] (रस) पाँच रस (रूप) पाँच वर्ण (गंध) दो गन्ध, (फरस) आठ प्रकार के स्पर्श (अरु) और (शब्द) शब्द (तिनमें) उन सबमें (राग-विरोध) राग या द्वेष (न) मुनि को नहीं होते, [इसलिये वे मुनि (पंचेन्द्रिय जयन) पाँच इन्द्रियों को जीतनेवाला अर्थात् जितेन्द्रिय (पद) पद (पावने) प्राप्त करते हैं। भावार्थ :- इस गाथा में निश्चय गुप्ति का तथा भावलिंगी मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों में पाँच इन्द्रियों की विजय के स्वरूप का वर्णन करते हैं। भावलिंगी मुनि जब उग्र पुरुषार्थ द्वारा शुद्धोपयोगरूप परिणमित होकर निर्विकल्प रूप में स्वरूप में गुप्त होते हैं - वह निश्चय गुप्ति है। उस समय मन-वचन-काय की क्रिया स्वयं रुक जाती है। उनकी शांत और अचल मुद्रा 68
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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