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________________ १२२ छहढाला छठवीं ढाल १२३ इत्यादि भावों की उत्पत्ति होना, सो भावहिंसा है। वीतरागी मुनि (साधु) यह दो प्रकार की हिंसा नहीं करते, इसलिये उनको (१) अहिंसा महाव्रत होता है। स्थूल या सूक्ष्म - ऐसे दोनों प्रकार के झूठ वे नहीं बोलते, इसलिये उनको (२) सत्य महाव्रत होता है। अन्य किसी वस्तु की तो बात ही क्या, किन्तु मिट्टी और पानी भी दिये बिना ग्रहण नहीं करते, इसलिये उनको (३) अचौर्यमहाव्रत होता है। शील के अठारह हजार भेदों का सदा पालन करते हैं और चैतन्यरूप आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं, इसलिये उनको (४) ब्रह्मचर्य (आत्मस्थिरतारूप) महाव्रत होता है।।१।। परिग्रह त्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति अंतर चतुर्दस भेद बाहिर, संग दसधा तैं टलैं। परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्या तैं चलैं ।। जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं। भ्रमरोग-हर जिनके वचन-मुखचन्द्र तैं अमृत झरे ।।२।। १. यहाँ वाक्य बदलने से महाव्रतों के लक्षण बनते हैं। जैसे कि - दोनों प्रकार की हिंसा न करना, सो अहिंसा महाव्रत है - इत्यादि । २. अदत्त वस्तुओं का प्रमाद से ग्रहण करना ही चोरी कहलाती है; इसलिये प्रमाद न होने पर भी मुनिराज नदी तथा झरने आदि का प्रासुक हुआ जल, भस्म (राख) तथा अपने आप गिरे हुए सेमल के फल और तुम्बीफल आदि का ग्रहण कर सकते हैं - ऐसा "श्लोकवार्तिकालंकार" का अभिमत है। (पृष्ठ ४६३)
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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