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________________ ११४ छहढाला तक के (पद) पद (अनन्त विरियाँ) अनन्तबार ( पायो ) प्राप्त किये, तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ; (दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को (मुनि) मुनिराजों ने (निज में) अपने आत्मा में (साधौ ) धारण किया है। भावार्थ :- • मिथ्यादृष्टि जीव मंद कषाय के कारण अनेक बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्रपद को प्राप्त हुआ है, परन्तु उसने एकबार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखता के अनन्त पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत अभिप्राय आदि दोषों का अभाव होता है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही होते हैं। पुण्य से, शुभराग से, जड़ कर्मादि से नहीं होते। इस जीव ने बाह्य संयोग, चारों गति के लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं, किन्तु निज आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है। बोधि अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की एकता; उस बोधि की प्राप्ति प्रत्येक जीव को करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव स्व-सन्मुखतापूर्वक ऐसा चितवन करता है और अपनी बोधि और शुद्धि की वृद्धि का बारम्बार अभ्यास करता है । यह “बोधि- दुर्लभ भावना” है ।। १३ ।। १२. धर्म भावना जो भाव मोह न्यारे, दृग-ज्ञान-व्रतादिक सारे । सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारे ।। १४ ।। 62 पाँचवीं ढाल ११५ अन्वयार्थ :- (मोह तैं) मोह से (न्यारे) भिन्न, (सारे) साररूप अथवा निश्चय (जो ) जो (दृग-ज्ञान-व्रतादिक) दर्शन-ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं, (सो) वह (धर्म) धर्म कहलाता है। (जबे) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण करता है, (तब ही) तभी वह (अचल सुख) अचल सुख - मोक्ष (निहारै) देखता है प्राप्त करता है। भावार्थ:- मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान; उससे रहित निश्चयसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ( रत्नत्रय) ही साररूप धर्म है। व्यवहार रत्नत्रय वह धर्म नहीं है - ऐसा बतलाने के लिए यहाँ गाथा में " सारे" शब्द का प्रयोग किया है। जब जीव निश्चय रत्नत्रयस्वरूप धर्म को स्वाश्रय द्वारा प्रकट करता है, तभी वह स्थिर, अक्षयसुख (मोक्ष) प्राप्त करता है । इस प्रकार चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचि की वृद्धि बारम्बार करता है । वह " धर्म भावना" है ।। १४ ।। आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनि का स्वरूप सो धर्म मुनिनकरि धरिये, तिनकी करतूत उचरिये । ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी ।। १५ ।। अन्वयार्थ :- (सो) ऐसा रत्नत्रय (धर्म) धर्म (मुनिनकरि) मुनियों द्वारा (धरिये) धारण किया जाता है, (तिनकी) उन मुनियों की करतूत ) क्रियाएँ (उचरिये) कही जाती हैं, (भवि प्रानी) हे भव्यजीवो! (ताको ) उसे ( सुनिये ) सुनो और (अपनी) अपने आत्मा के (अनुभूति) अनुभव को ( पिछानी ) पहिचानो । भावार्थ :- निश्चयरत्नत्रयस्वरूप धर्म को भावलिंगी दिगम्बर जैन मुनि ही अंगीकार करते हैं, अन्य कोई नहीं। अब, आगे उन मुनियों के सकलचारित्र का वर्णन किया जाता है। हे भव्यो! उन मुनिवरों का चारित्र सुनो और अपने आत्मा का अनुभव करो ।। १५ ।।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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