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________________ ७६ छहढाला चौथी ढाल देशप्रत्यक्ष (है) हैं; क्योंकि उन ज्ञानों से] (जिय) जीव (द्रव्य क्षेत्र परिमाण) द्रव्य और क्षेत्र की मर्यादा (लिये) लेकर (स्वच्छा) स्पष्ट (जा.) जानता है। भावार्थ :- इस सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं - (१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं, क्योंकि वे दोनों ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से वस्तु को अस्पष्ट जानते हैं । सम्यक्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकाल में प्रत्यक्ष होते हैं, उनमें इन्द्रिय और मन निमित्त नहीं हैं। अवधिज्ञान और प्रश्न :- ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत् (एकसाथ) होते हैं तो उनमें कारणकार्यपना क्यों कहते हो? उत्तर :- “वह हो तो वह होता हैं" - इस अपेक्षा से कारण-कार्यपना कहा है। जिसप्रकार दीपक और प्रकाश दोनों युगपत् होते हैं, तथापि दीपक हो तो प्रकाश होता है; इसलिये दीपक कारण है और प्रकाश कार्य है। उसीप्रकार ज्ञान-श्रद्धान भी हैं। (मोक्षमार्ग प्रकाशक (देहली) पृष्ठ १२६) जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब तक का ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता। - ऐसा होने से सम्यग्दर्शन, वह सम्यग्ज्ञान का कारण है।' सम्यग्ज्ञान के भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्ष के लक्षण तास भेद दो हैं, परोक्ष परतछि तिन माहिं। मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनसे उपजाहीं।। अवधिज्ञान मनपर्जय दो हैं देश-प्रतच्छा। द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा ।।३।। अन्वयार्थ :- (तास) उस सम्यग्ज्ञान के (परोक्ष) परोक्ष और (परतछि) प्रत्यक्ष (दो) दो (भेद हैं) भेद हैं; (तिन माहि) उनमें (मति श्रुत) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान (दोय) ये दोनों (परोक्ष) परोक्षज्ञान हैं। क्योंकि वे] (अक्ष मनत) इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से (उपजाही) उत्पन्न होते हैं। (अवधिज्ञान) अवधिज्ञान और (मनपर्जय) मनःपर्ययज्ञान (दो) ये दोनों ज्ञान (देश-प्रतच्छा) १. पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य । लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः ।।३२ ।। सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तम्मात् ।।३३ ।। कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि। दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।।३४ ।। - (श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव रचित पुरुषार्थसिद्धि-उपाय) मनःपर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं, क्योंकि जीव इन दो ज्ञानों से रूपी द्रव्य को द्रव्य, क्षेत्र. काल और भाव की मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है। सकल-प्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण और ज्ञान की महिमा सकल द्रव्य के गुन अनंत, परजाय अनंता । जानैं एकै काल, प्रकट केवलि भगवन्ता ।। ज्ञान समान न आन जगत में सुख की कारन । इहि परमामृत जन्मजरामृति-रोग-निवारन ।।४।। १. जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से वस्तु को अस्पष्ट जानता है, उसे परोक्षज्ञान कहते हैं। २. जो ज्ञान रूपी वस्तु को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है, उसे देशप्रत्यक्ष कहते हैं। 43
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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