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________________ छहढाला तीसरी ढाल देशवती: निमित्तकारण : नोकर्म : पाखंडी मूढ़ता : पुद्गल : सेवा करना अथवा वंदन-नमस्कार करना। श्रावक के व्रतों को धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि, पाँचवें गुणस्थान में वर्तनेवाले जीव। जो स्वयं कार्यरूप परिणमित न हो, किन्तु कार्य की उत्पत्ति के समय उपस्थित रहे, वह कारण । औदारिकादि पाँच शरीर तथा छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणु नोकर्म कहलाते हैं। रागी-द्वेषी और वस्त्रादि परिग्रहधारी, झूठे तथा कुलिंगी साधुओं की सेवा करना अथवा वंदन-नमस्कार करना। जो पुरे और गले । परमाणु बन्धस्वभावी होने से मिलते हैं तथा पृथक् होते हैं, इसलिये वे पुद्गल कहलाते हैं। अथवा जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो; वह पुद्गल है। स्वरूप में असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति अथवा धार्मिक कार्यों में अनुत्साह। अनन्तानुबन्धी कषाय के अन्तपूर्वक शेष कषायों का अंशतः मन्द होना, सो। (पंचाध्यायी भाग २, गाथा ४२८) अहंकार, घमण्ड, अभिमान।। मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि जीव के मलिन भाव । तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा करनेवाले। धर्म समझकर जलाशयों में स्नान करना तथा रेत, पत्थर आदि का ढेर बनाना - आदि कार्य । जो धर्म अमुक विशिष्ट द्रव्य में रहे, उसे विशेष धर्म कहते हैं। शुद्धोपयोग :- शुभ और अशुभ राग-द्वेष की परिणति से रहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित चारित्र की स्थिरता। सामान्य गुण:- सर्व द्रव्यों में समानता से विद्यमान गुणों को सामान्य कहते हैं। सामान्य:- प्रत्येक वस्तु में त्रैकालिक द्रव्य-गुणरूप, अभेद एकरूप भाव को सामान्य कहते हैं। सिद्ध : आठ गुणों सहित तथा आठ कर्मों एवं शरीर रहित परमेष्ठी । (व्यवहार से मुख्य आठ गुण और निश्चय से अनन्त गुण प्रत्येक सिद्ध परमात्मा में हैं। संवेग : संसार से भय होना और धर्म तथा धर्म के फल में परम उत्साह होना । साधर्मी और पंचपरमेष्ठी में प्रीति को भी संवेग कहते हैं। निर्वेद : संसार, शरीर और भोगों में सम्यक् प्रकार से उदासीनता अर्थात् वैराग्य। अन्तर-प्रदर्शन (१) जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम, वह भाव-आस्रव है और उस परिणाम में स्निग्धता, वह भावबन्ध है। (२) अनायतन में तो कुदेवादि की प्रशंसा की जाती है, किन्तु मूढ़ता में तो उनकी सेवा, पूजा और विनय करते हैं। (३) माता के वंश को जाति और पिता के वंश को कुल कहा जाता है। (४) धर्मद्रव्य तो छह द्रव्यों में से एक द्रव्य है और धर्म वह वस्तु का स्वभाव अथवा गुण है। (५) निश्चयनय वस्तु के यथार्थस्वरूप को बतलाता है। व्यवहारनय स्वद्रव्य प्रमाद : प्रशम : मद :भावकर्म :मिथ्यादृष्टि :लोकमूढ़ता : विशेष धर्म :-
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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