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________________ छहढाला तीसरी ढाल ज्ञानियों से प्राप्त करने में सावधान हो; अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को व्यर्थ न गँवा । इस जन्म में ही यदि सम्यक्त्व प्राप्त न किया तो फिर मनुष्यपर्याय आदि अच्छे योग पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते ।१७। तीसरी ढाल का सारांश आत्मा का कल्याण सुख प्राप्त करने में है। आकुलता का मिट जाना, वह सच्चा सुख है। मोक्ष ही सुखस्वरूप है; इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना चाहिए। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र - इन तीनों की एकता, सो मोक्षमार्ग है। उसका कथन दो प्रकार से है। निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो वास्तव में मोक्षमार्ग है और व्यवहार-सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र वह मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु वास्तव में बन्धमार्ग है; लेकिन निश्चयमोक्षमार्ग में सहचर होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। __ आत्मा की परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ श्रद्धान, सो निश्चयसम्यग्दर्शन है और परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ ज्ञान, सो निश्चयसम्यग्ज्ञान है। परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूप में लीन होना, सो निश्चयसम्यक्चारित्र है। सातों तत्त्वों का यथावत् भेदरूप अटल श्रद्धान करना, सो व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है । यद्यपि सात तत्त्वों के भेद की अटल श्रद्धा शुभराग होने से वह वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं है, किन्तु निचली दशा में (चौथे, पाँचवें और छठवें गुणस्थान में) निश्चयसम्यक्त्व के साथ सहचर होने से वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है। आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष - ये सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं तथा निःशंकितादि आठ सम्यक्त्व के अंग (गुण) हैं; उन्हें भलीभाँति जानकर दोष का त्याग तथा गुण का ग्रहण करना चाहिए। जो विवेकी जीव निश्चयसम्यक्त्व को धारण करता है; उसे जब तक निर्बलता है, तब तक पुरुषार्थ की मन्दता के कारण यद्यपि किंचित् संयम नहीं होता, तथापि वह इन्द्रादि के द्वारा पूजा जाता है। तीनलोक और तीनकाल में निश्चयसम्यक्त्व के समान सुखकारी अन्य कोई वस्तु नहीं है। सर्व धर्मों का मूल, सार तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी यह सम्यक्त्व ही है; उसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते, किन्तु मिथ्या कहलाते हैं। आयुष्य का बन्ध होने से पूर्व सम्यक्त्व धारण करनेवाला जीव मृत्यु के पश्चात् दूसरे भव में नारकी, ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग, नीच गोत्रवाला, अल्पायु तथा दरिद्री नहीं होता । मनुष्य और तिर्यंच सम्यग्दृष्टि मरकर वैमानिक देव होता है देव और नारकी सम्यग्दृष्टि मरकर कर्मभूमि में उत्तम क्षेत्र में मनुष्य ही होता है। यदि सम्यग्दर्शन होने से पूर्व -१ देव, २ मनुष्य, ३ तिर्यंच या ४ नरकायु का बन्ध हो गया हो तो वह मरकर १ वैमानिक देव, २ भोगभूमि का मनुष्य,३ भोगभूमि का तिर्यंच अथवा ४ प्रथम नरक का नारकी होता है। इससे अधिक नीचे के स्थान में जन्म नहीं होता । इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की अपार महिमा है। इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को सत् शास्त्रों का स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्वविचार द्वारा निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि यदि इस मनुष्यभव में निश्चयसम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुनः मनुष्यपर्याय प्राप्ति आदि का सुयोग मिलना कठिन है। तीसरी ढाल का भेद-संग्रह अचेतन द्रव्य :- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । चेतन एक, अचेतन पाँचों, रहें सदा गुण-पर्ययवान । केवल पुद्गल रूपवान है, पाँचों शेष अरूपी जान ।। अंतरंग परिग्रह :- १ मिथ्यात्व, ४ कषाय, ९ नोकषाय । आस्रव : ५ मिथ्यात्व, १२ अविरति, २५ कषाय, १५ योग । कारण: उपादान और निमित्त। 38
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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