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________________ ४८ छहढाला द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप अशुभोपयोग का तो अस्तित्व ही जिनके नहीं रहा है - ऐसी अन्तरंगदशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समय अट्ठाईस मूलगुणों का अखण्डरूप से पालन करते हैं वे, तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानीय - ऐसे दो कषाय के अभाव सहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात् छठवें और पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं। ' (२) सम्यग्दर्शन के बिना कभी धर्म का प्रारम्भ नहीं होता। जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है, वह जीव बहिरात्मा है। (३) परमात्मा के दो प्रकार हैं सकल और निकल । (२) श्री अरिहंत परमात्मा वे `सकल (शरीरसहित) परमात्मा हैं और (२) सिद्ध परमात्मा वे निकल परमात्मा हैं। वे दोनों सर्वज्ञ होने से लोक और अलोक सहित सर्व पदार्थों का त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण स्वरूप एक समय में युगपत् (एकसाथ) जाननेदेखनेवाले, सबके ज्ञाता द्रष्टा हैं, इससे निश्चित होता है कि जिसप्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान व्यवस्थित है, उसीप्रकार उनके ज्ञान के ज्ञेय-सर्वद्रव्य - छहों द्रव्यों की त्रैकालिक क्रमबद्ध पर्यायें निश्चित व्यवस्थित हैं, कोई पर्याय उल्टीसीधी अथवा अव्यवस्थित नहीं होती, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव मानता है। जिसकी ऐसी मान्यता (निर्णय) नहीं होती, उसे स्व- पर पदार्थों का निश्चय न होने से शुभाशुभ विकार और परद्रव्य के साथ कर्ताबुद्धि-एकताबुद्धि होती ही है। इसलिये वह जीव बहिरात्मा है। १. सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति । श्रावकगुणैस्तु युक्ताः प्रमत्तविरताश्च मध्यमा भवन्ति ।। अर्थ :- श्रावक के गुणों से युक्त और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं। (स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - १९६ ) २. स = सहित, कलशरीर, सकल अर्थात् शरीर सहित । ३. नि= रहित, कल= शरीर, निकल अर्थात् शरीर रहित । 29 तीसरी ढाल ४९ निकल परमात्मा का लक्षण तथा परमात्मा के ध्यान का उपदेश ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता । ते हैं निकल अमल परमातम भोगें शर्म अनन्ता ।। बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हजै । परमातम को ध्याय निरन्तर जो नित आनन्द पूजै ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ :- ( ज्ञानशरीरी) ज्ञानमात्र जिनका शरीर है ऐसे (त्रिविध) ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म, ऐसे तीन प्रकार के (कर्ममल) कर्मरूपी मैल से (वर्जित) रहित, (अमल) निर्मल और (महन्ता ) महान (सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल ( परमातम ) परमात्मा हैं। वे (अनन्त) अपरिमित (शर्म) सुख (भोगें) भोगते हैं। इन तीनों में (बहिरातमता) बहिरात्मपने को (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर और ( तजि ) उसे छोड़कर ( अन्तर आतम) अन्तरात्मा (हजै ) होना चाहिए और (निरन्तर) सदा (परमातम को) [निज] परमात्मपद का (ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात् अनन्त (आनन्द) आनन्द ( पूजै) प्राप्त किया जाता है। भावार्थ :- औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञानमय द्रव्य-भावनोकर्म रहित, निर्दोष और पूज्य सिद्ध परमेष्ठी 'निकल' परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुख का अनुभव करते हैं । इन तीन में बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होने के कारण हेय (छोड़ने योग्य) है, इसलिये आत्महितैषियों को चाहिए कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और अनन्त आनन्द (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। अजीव पुद्गल धर्म और अधर्मद्रव्य के लक्षण तथा भेद चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं। पुद्गल पंच वरन - रस, गंध दो फरस वसू जाके हैं। जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्म द्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई जिन बिन-मूर्ति निरूपी ॥ ७ ॥
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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