SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला गाथा ११ (पूर्वार्ध) कुदेव (मिथ्यादेव) का स्वरूप ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण छेव । अन्वयार्थ :- (जे) जो (राग-द्वेष मलकरि मलीन) राग-द्वेषरूपी मैल से मलिन हैं और (वनिता) स्त्री (गदादि जुत) गदा आदि सहित (चिह्न चीन) चिह्नों से पहिचाने जाते हैं (ते) वे (कुदेव) झूठे देव हैं, (तिनकी) उन कुदेवों की (जु) जो (शठ) मूर्ख (सेव करत) सेवा करते हैं, (तिन) उनका (भवभ्रमण) संसार में भ्रमण करना (न छेव) नहीं मिटता। ____ भावार्थ :- जो राग और द्वेषरूपी मैल से मलिन (रागी-द्वेषी) हैं और स्त्री, गदा, आभूषण आदि चिह्नों से जिनको पहिचाना जा सकता है, वे 'कुदेव' कहे जाते हैं। जो अज्ञानी ऐसे कुदेवों की सेवा (पूजा, भक्ति और विनय) करते हैं, वे इस संसार का अन्त नहीं कर सकते अर्थात् अनन्तकाल तक उनका भवभ्रमण नहीं मिटता ।।१०।। गाथा ११ (उत्तरार्द्ध) कुधर्म और गृहीत मिथ्यादर्शन का संक्षिप्त लक्षण रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ।।११।। जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म। या। गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान ।।१२।। दूसरी ढाल अन्वयार्थ :- (रागादि भावहिंसा) राग-द्वेष आदि भावहिंसा (समेत) सहित तथा (त्रस-थावर) त्रस और स्थावर (मरण खेत) मरण का स्थान (दवित) द्रव्यहिंसा (समेत) सहित (जे) जो (क्रिया) क्रियाएँ [हैं] (तिन्हें) उन्हें (कुधर्म) मिथ्याधर्म (जानहु) जानना चाहिए। (तिन) उनकी (सरधै) श्रद्धा करने से (जीव) आत्मा-प्राणी (लहै अशर्म) दुःख पाते हैं। (या।) इस कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का श्रद्धान करने को (गृहीत मिथ्यात्व) गृहीत मिथ्यादर्शन जानना, (अब गृहीत) अब गृहीत (अज्ञान) मिथ्याज्ञान (जो है) जिसे कहा जाता है, उसका वर्णन (सुन) सुनो। भावार्थ :- जिस धर्म में मिथ्यात्व तथा रागादिरूप भावहिंसा और त्रस तथा स्थावर जीवों के घातरूप द्रव्यहिंसा को धर्म माना जाता है, उसे कुधर्म कहते हैं। जो जीव उस कुधर्म की श्रद्धा करता है, वह दुःख प्राप्त करता है। ऐसे मिथ्या गुरु, देव और धर्म की श्रद्धा करना, उसे "गृहीत मिथ्यादर्शन" कहते हैं। वह परोपदेश आदि बाह्य कारण के आश्रय से ग्रहण किया जाता है, इसलिये “गृहीत” कहलाता है। अब गृहीत मिथ्याज्ञान का वर्णन किया जाता है। गृहीत मिथ्याज्ञान का लक्षण एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त; रागी कुमतनिकृत श्रुताभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास ।।१३।। १. सुदेव - अरिहंत परमेष्ठी; देव - भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक. कदेव हरि, हर शीतलादि; अदेव - पीपल, तुलसी, लकड़बाबा आदि कल्पित देव, जो कोई भी सरागी देव-देवी हैं, वे वन्दन-पूजन के योग्य नहीं हैं। अन्वयार्थ :- (एकान्तवाद) एकान्तरूप कथन से (दूषित) मिथ्या [और] (विषयादिक) पाँच इन्द्रियों के विषय आदि की (पोषक) पुष्टि करनेवाले (रागी कुमतनिकृत) रागी कुमति आदि के रचे हुए (अप्रशस्त) मिथ्या (समस्त) 21
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy