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________________ सूत्रपाहुड गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेलअत्थेण। इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाइं ।।२७।। ग्राोण अल्पग्राहा: समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन । इच्छा येभ्यः निवृत्ता: तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि ।।२७।। अर्थ – जो मुनि ग्राह्य अर्थात् ग्रहण करने योग्य वस्तु आहार आदिक से तो अल्पग्राह्य हैं, थोड़ा ग्रहण करते हैं, जैसे कोई पुरुष बहुत जल से भरे हुए समुद्र में से अपने वस्त्र को धोने के लिए वस्त्र धोनेमात्र जल ग्रहण करता है और जिन मुनियों के इच्छा निवृत्त हो गई उनके सब दु:ख निवृत्त हो गये। भावार्थ - जगत में यह प्रसिद्ध है कि जिनके संतोष है, वे सुखी हैं, इस न्याय से यह सिद्ध हुआ कि जिन मुनियों के इच्छा की निवृत्ति हो गई है, उनके संसार के विषयसंबंधी इच्छा किंचित् मात्र भी नहीं हैं, देह से विरक्त हैं, इसलिए परम संतोषी हैं और आहारादि कुछ ग्रहण योग्य हैं, उनमें से भी अल्प को ग्रहण करते हैं इसलिए वे परम संतोषी हैं, वे परम सुखी हैं, यह जिनसूत्र के श्रद्धान का फल है, अन्य सूत्र में यथार्थ निवृत्ति का प्ररूपण नहीं है इसलिए कल्याण के सुख को चाहनेवालों को जिनसूत्र का निरंतर सेवन करना योग्य है ।।२७।। ऐसे सूत्रपाहुड को पूर्ण किया। (छप्पय) जिनवर की ध्वनि मेघध्वनिसम मुख तैं गरजे। गणधर के श्रुति भूमि वरषि अक्षर पद सरजै ।। सकल तत्त्व परकास करै जगताप निवारै। हेय अहेय विधान लोक नीकै मन धारै ।। विधि पुण्य पाप अरु लोक की मुनि श्रावक आचरण पुनि । करि स्व-पर भेद निर्णय सकल कर्म नाशि शिव लहत मुनि ।।१।। (दोहा) वर्द्धमान जिनके वचन वर” पंचमकाल। भव्य पाय शिवमग लहै न तास गुणमाल ।।२।। इति पण्डित जयचन्द्र छाबड़ा कृत देशभाषावचनिका के हिन्दी अनुवाद सहित श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित सूत्रपाहुड समाप्त ।।२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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