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________________ अष्टपाहुड अर्थ - पहिले कहा कि जो आत्मा को इष्ट नहीं करता है उसके सिद्धि नहीं है, इस ही कारण से हे भव्यजीवो ! तुम उस आत्मा की श्रद्धा करो, उसका श्रद्धान करो, मन वचन काय से स्वरूप में रुचि करो, इसकारण से मोक्ष को पाओ और जिससे मोक्ष पाते हैं उसको प्रयत्न द्वारा सब प्रकार के उद्यम करके जानो। (भावपाहुड गाथा ८७ में भी यह बात 1) भावार्थ - जिससे मोक्ष पाते हैं, उस ही को जानना, श्रद्धान करना यह प्रधान उपदेश है, अन्य आडम्बर से क्या प्रयोजन ? इसप्रकार जानना ।। १६ ।। आगे कहते हैं कि जो जिनसूत्र को जाननेवाले मुनि हैं, उनका स्वरूप फिर दृढ़ करने को कहते हैं - - ५२ वालग्गकोडिमेत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ।।१७। बालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् । भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने ।। १७।। अर्थ - बाल के अग्रभाग की कोटि अर्थात् अणी मात्र भी परिग्रह का ग्रहण साधु के नहीं होता है, यहाँ आशंका है कि यदि परिग्रह कुछ भी नहीं है तो आहार कैसे करते हैं ? इसका समाधान करते हैं - आहार करते हैं सो पाणिपात्र (करपात्र) अपने हाथ ही में भोजन करते हैं, वह भी अन्य का दिया हुआ प्रासुक अन्न मात्र लेते हैं, वह भी एक स्थान पर ही लेते हैं, बारबार नहीं लेते हैं और अन्य अन्य स्थान में नहीं लेते हैं। भावार्थ - जो मुनि आहार ही पर का दिया हुआ प्रासुक योग्य अन्नमात्र निर्दोष एकबार दिन में अपने हाथ में लेते हैं तो अन्य परिग्रह किसलिए ग्रहण करे ? अर्थात् ग्रहण नहीं करे, जिनसूत्र में इसप्रकार मुनि कहे है ।।१७।। आगे कहते हैं कि अल्प परिग्रह ग्रहण करे उसमें दोष क्या है ? उसको दोष दिखाते हैं - - जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण णिग्गोदम् ।। १८ ।। बालाग्र के भी बराबर ना परीग्रह हो साधु के । अर अन्य द्वारा दत्त पाणीपात्र में भोजन करें ।। १७ ।। जन्मते शिशुवत् अकिंचन नहीं तिल - - तुष हाथ में । किंचित् परीग्रह साथ हो तो श्रमण जाँयें निगोद में ।। १८ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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