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________________ ४४ अष्टपाहुड ___ व्यवहार के दो आश्रय हैं, एक प्रयोजन, दूसरा निमित्त । प्रयोजन साधने को किसी वस्तु को घट कहना वह तो प्रयोजनाश्रित है और किसी अन्य वस्तु के निमित्त से घट में अवस्था हुई उसको घटरूप कहना वह निमित्ताश्रित है। इसप्रकार विवक्षित सर्व जीव अजीव वस्तुओं पर लगाना। एक आत्मा ही को प्रधान करके लगाना अध्यात्म है। जीव सामान्य को भी आत्मा कहते हैं। जो जीव अपने को सब जीवों से भिन्न अनुभव करे उसको भी आत्मा कहते हैं, जब अपने को सबसे भिन्न अनुभव करके, अपने पर निश्चय लगावे तब इसप्रकार जो आप अनादि अनन्त अविनाशी सब अन्य द्रव्यों से भिन्न एक सामान्य विशेषरूप अनन्तधर्मात्मक द्रव्य पर्यायात्मक जीव नामक शुद्ध वस्तु है, वह कैसा है - शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतनास्वरूप असाधारण धर्म को लिए हुए अनन्त शक्ति का धारक है, उसमें सामान्य भेद चेतना अनन्त शक्ति का समूह द्रव्य है। अनन्तज्ञान दर्शन सुख वीर्य ये चेतना के विशेष हैं वह तो गुण हैं और अगुरुलघु गुण के द्वारा षट्स्थान पतित हानि वृद्धिरूप परिणमन करते हुए जीव के त्रिकालात्मक अनन्त पर्यायें हैं। इसप्रकार शुद्ध जीव नामक वस्तु को सर्वज्ञ ने देखा जैसा आगम में प्रसिद्ध है, वह तो एक अभेदरूप शुद्ध निश्चय नय का विषयभूत जीव है, इस दृष्टि से अनुभव करे तब तो ऐसा है और अनन्त धर्मों में भेदरूप किसी एक धर्म को लेकर कहना व्यवहार है। ___ आत्मवस्तु के अनादि ही से पुद्गल कर्म का संयोग है, इसके निमित्त से राग-द्वेषरूप विकार की उत्पत्ति होती है, उसको विभाव परिणति कहते हैं और इससे फिर आगामी कर्म का बंध होता है। इसप्रकार अनादि निमित्त-नैमित्तिक भाव के द्वारा चतुर्गतिरूप संसारभ्रमण की प्रवृत्ति होती है। जिस गति को प्राप्त हो वैसे ही नाम का जीव कहलाता है तथा जैसा रागादिक भाव हो वैसा नाम कहलाता है। जब द्रव्य क्षेत्र काल भाव की बाह्य अंतरंग सामग्री के निमित्त से अपने शुद्धस्वरूप शुद्धनिश्चयनय के विषयस्वरूप अपने को जानकर श्रद्धान करे और कर्म संयोग को तथा उसके निमित्त से अपने भाव होते हैं उनका यथार्थ स्वरूप जाने तब भेदज्ञान होता है, तब ही परभावों से विरक्ति होती है। फिर उनको दूर करने का उपाय सर्वज्ञ के आगम से यथार्थ समझकर उसको अंगीकार करे तब अपने स्वभाव में स्थिर होकर अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं, सब कर्मों का क्षय करके लोकशिखर पर जाकर विराजमान हो जाता है, तब मुक्त या सिद्ध कहलाता है। इसप्रकार जितनी संसार की अवस्था और यह मुक्त अवस्था इसप्रकार भेदरूप आत्मा का निरूपण है, वह भी व्यवहार नय का विषय है, इसको अध्यात्म शास्त्र में अभूतार्थ असत्यार्थ नाम
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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