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________________ अष्टपाहुड ३४ आगे अन्य अवस्था नहीं है, ऐसी निर्वाण अवस्था को प्राप्त होते हैं। भावार्थ - जो तप द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर जबतक विहार करें, तबतक अवस्थान रहें पीछे द्रव्य, क्षेत्र, काल-भाव की सामग्रीरूप विधि के बल से कर्म नष्टकर व्युत्सर्ग द्वारा शरीर को छोड़कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि जब निर्वाण को प्राप्त होते हैं, तब लोकशिखर पर जाकर विराजते हैं, वहाँ गमन में एकसमय लगता है, उस समय जंगम प्रतिमा कहते हैं। ऐसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। इस पाहुड में सम्यग्दर्शन के प्रधानपने का व्याख्यान किया है ।।३६ ।। । (सवैया छन्द) मोक्ष उपाय कह्यो जिनराज जु सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रा। तामधि सम्यग्दर्शन मुख्य भये निज बोध फलै सुचरित्रा ।। जे नर आगम जानि करै पहचानि यथावत मित्रा। घाति क्षिपायरु केवल पाय अघाति हने लहि मोक्ष पवित्रा॥१॥ (दोहा ) नमूं देव गुरु धर्म कू, जिन आगम कू मानि । जा प्रसाद पायो अमल, सम्यग्दर्शन जानि ।।२।। इति श्री कुन्दकुन्दस्वामि विरचित अष्टप्राभृत में प्रथम दर्शनप्राभृत और उसकी जयचन्द्रजी छाबड़ा कृत देशभाषामयवचनिका का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त हुआ।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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