SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२७ शीलपाहुड आगे कहते हैं कि पुरुष को इसप्रकार निर्वाण होता है - णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। होहदि परिणिव्वाणं जीवाण चरित्तसुद्धाणं ।।११।। ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानाम् ।।११।। अर्थ - ज्ञान दर्शन तप इनका सम्यक्त्व भावसहित आचरण हो तब चारित्र से शुद्ध जीवों को निर्वाण की प्राप्ति होती है। भावार्थ - सम्यक्त्व सहित ज्ञान दर्शन तप का आचरण करे तब चारित्र शुद्ध होकर रागद्वेषभाव मिट जावे तब निर्वाण होता है, यह मार्ग है ।।११।। (तप=शुद्धोपयोगरूप मुनिपना, यह हो तो २२ प्रकार व्यवहार के भेद हैं।) आगे इसी को शील की मुख्यता द्वारा नियम से निर्वाण कहते हैं - सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं । अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ।।१२।। शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढ़चारित्राणाम्। अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ।।१२।। अर्थ – जिन पुरुषों का चित्त विषयों से विरक्त है, शील की रक्षा करते हैं, दर्शन से शुद्ध हैं और जिनका चारित्र दृढ़ है ऐसे पुरुषों को ध्रुव अर्थात् निश्चय से-नियम से निर्वाण होता है। भावार्थ - विषयों से विरक्त होना ही शील की रक्षा है, इसप्रकार से जो शील की रक्षा करते हैं, उन ही के सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और चारित्र अतिचाररहित शुद्ध-दृढ़ होता है ऐसे पुरुषों को नियम से निर्वाण होता है। जो विषयों में आसक्त हैं, उनके शील बिगड़ता है तब दर्शन शुद्ध न होकर चारित्र शिथिल हो जाता है, तब निर्वाण भी नहीं होता है, इसप्रकार निर्वाण मार्ग में शील ही प्रधान है।।१२।। जब ज्ञान, दर्शन, चरण, तप सम्यक्त्व से संयुक्त हो। तब आतमा चारित्र से प्राप्ति करे निर्वाण की।।११।। शील रक्षण शुद्ध दर्शन चरण विषयों से विरत । जो आत्मा वे नियम से प्राप्ति करें निर्वाण की ।।१२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy