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________________ ३१७ लिंगपाहुड बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्ठोण सो समणो ।।१९।। एवं सहित: मुनिवर ! संयतमध्ये वर्त्तते नित्यम् । बहुलमपि जानन् भावविनष्टः न स: श्रमणः ।।१९।। अर्थ – एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार प्रवृत्ति सहित जो वर्तता है वह हे मुनिवर ! जो ऐसा लिंग धारी संयमी मुनियों के मध्य भी निरन्तर रहता है और बहुत शास्त्रों को भी जानता है तो भी भावों से नष्ट है, श्रमण नहीं है। भावार्थ - ऐसा पूर्वोक्त प्रकार का लिंगी जो सदा मुनियों में रहता है और बहुत शास्त्रों को जानता है तो भी भाव अर्थात् शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणाम से रहित है, इसलिए मुनि नहीं है, भ्रष्ट है, अन्य मुनियों के भाव बिगाड़नेवाला है ।।१९।। आगे फिर कहते हैं कि जो स्त्रियों का संसर्ग बहुत रखता है वह भी श्रमण नहीं है - दसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देदि वीसट्ठो। पासत्थ वि हुणियट्ठो भावविणट्ठोण सो समणो ।।२०।। दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः। पार्श्वस्थादपिस्फटविनष्ट: भावविनष्ट: नसःश्रमणः ॥२०॥ अर्थ - जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके और उनको विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन ज्ञान चारित्र को देता है उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना-पढ़ाना, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, इसप्रकार विश्वास उत्पन्न कराके उनमें प्रवर्तता है वह ऐसा लिंगी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रगट भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है। भावार्थ - लिंग धारण करके स्त्रियों को विश्वास उत्पन्न कराकर उनसे निरंतर पढ़ना, पढ़ाना, लालपाल रखना, उसको जानो कि इसका भाव खोटा है। पार्श्वस्थ तो भ्रष्ट मुनि को कहते हैं उससे भी यह निकृष्ट है, ऐसे को साधु नहीं कहते हैं ।।२०।। आगे फिर कहते हैं - पुंच्छलिघरि जो भुञ्जइ णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं। पार्श्वस्थ से भी हीन जो विश्वस्त महिलावर्ग में। रत ज्ञान-दर्शन-चरण दें वे नहीं पथ अपवर्ग हैं ।।२०।। जो पुंश्चली के हाथ से आहार लें शंशा करें। निज पिंड पोसें वालमुनि वे भाव से तो नष्ट हैं ।।२१।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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