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________________ (३) तम्हा आदा हु मे सरणं - इसलिए मुझे एक आत्मा की ही शरण है। (४) जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जमि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ।। जो योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने स्वरूप की साधना के काम में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने काम में सोता है। (५) किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे विभविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥ अधिक कहने से क्या लाभ है इतना समझ लो कि आज तक जो जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में होंगे, वह सब सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है । (७) लिंगपाहु बाईस गाथाओं के इस लिंगपाहुड में जिनलिंग का स्वरूप स्पष्ट करते हुए जिनलिंग धारण करनेवालों को अपने आचरण और भावों की संभाल के प्रति सतर्क किया गया है। आरंभ में ही आचार्य कहते हैं कि धर्मात्मा के लिंग (नग्न दिगम्बर साधु वेष ) तो होता है, किन्तु लिंग धारण कर लेने मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए हे भव्यजीवों ! भावरूप धर्म को पहिचानो, अकेले लिंग (वेष ) से कुछ होनेवाला नहीं है। आगे चलकर अनेक गाथाओं में बड़े ही कठोर शब्दों में कहा गया है कि पाप से मोहित है बुद्धि जिनकी, ऐसे कुछ लोग जिनलिंग को धारण करके उसकी हँसी कराते हैं। निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके भी जो साधु परिग्रह का संगह करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, उसका चिंतवन करते हैं; वे नग्न होकर भी सच्चे श्रमण नहीं हैं, अज्ञानी हैं, पशु हैं । इसीप्रकार नग्नवेष धारण करके भी जो भोजन में गृद्धता रखते हैं, आहार के निमित्त दौड़ते हैं, कलह करते हैं, ईर्ष्या करते हैं, मनमाना सोते हैं, दौड़ते हुए चलते हैं, उछलते हैं, इत्यादि असत्क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, वे मुनि तो है ही नहीं, मनुष्य भी नहीं हैं, पशु हैं। स्नेह आगे चलकर फिर लिखते हैं कि जो मुनि दीक्षा रहित गृहस्थों में और दीक्षित शिष्यों में बहुत रखते हैं, मुनियों के योग्य क्रिया और गुरुओं की विनय से रहित होते हैं, वे भी श्रमण नहीं, पशु हैं। जो साधु महिलाओं का विश्वास करके उनको विश्वास में लेकर उनमें प्रवर्तते हैं, उन्हें पढ़ाते हैं, प्रवृत्ति सिखाते हैं, ऐसे वेषधारी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट हैं, विनष्ट हैं; श्रमण नहीं हैं। इसप्रकार की प्रवृत्तियों में पड़े हुए वेषी मुनि बहुत विद्वान होने पर भी शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी सच्चे श्रमण नहीं हैं। अन्त में आचार्य कहते हैं कि इस लिंगपाहुड में व्यक्त भावों को जानकर जो मुनि दोषों से बचकर सच्चा लिंग धारण करते हैं, वे मुक्ति पाते हैं। ( २२ )
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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