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________________ २९४ आगे सम्यक्त्व मिथ्यात्व भाव के कथन का संकोच करते हैं - सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएण तु । । ९६ ।। सम्यक्त्वे गुण मिथ्यात्वे दोष: मनसा परिभाव्य तत् कुरु । यत् ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ।। ९६ ।। अर्थ - हे भव्य ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्वभाव के दोषों की अपने मन से भावना कर और जो अपने मन को रुचे, प्रिय लगे वह कर, बहुत प्रलापरूप कहने से क्या साध्य है ? इसप्रकार आचार्य ने उपदेश दिया है। भावार्थ - इसप्रकार आचार्य ने कहा है कि बहुत कहने से क्या ? सम्यक्त्व मिथ्यात्व के गुण-दोष पूर्वोक्त जानकर जो मन में रुचे, वह करो। यहाँ उपदेश का आशय ऐसा है कि मिथ्यात्व को छोड़ो, सम्यक्त्व को ग्रहण करो, इससे संसार का दुःख मेटकर मोक्ष पाओ ।। ९६ ।। - आगे कहते हैं कि यदि मिथ्यात्व भाव नहीं छोड़ा तब बाह्य भेष से कुछ लाभ नहीं है - बाहिरसंगविमुक्का ण वि मुक्को मिच्छ भाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि 'अप्पसमभावं ।। ९७ ।। बहि: संगविमुक्त: नापि मुक्त: मिथ्याभावेन निर्ग्रन्थः । किं तस्य स्थानमौनं न अपि जानाति 'आत्मसमभावं । । ९७ ।। अष्टपाहुड अर्थ - जो बाह्य परिग्रह रहित और मिथ्याभाव सहित निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है वह परिग्रह रहित नहीं है, उसके ठाण अर्थात् खड़े होकर कायोत्सर्ग करने से क्या साध्य है ? और मौन धारण करने से क्या साध्य है ? क्योंकि आत्मा का समभाव जो वीतराग परिणाम उसको नहीं जानता I भावार्थ - आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानकर सम्यग्दृष्टि होता है और जो मिथ्याभावसहित परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ भी हो गया है, कायोत्सर्ग करना, मौन धारण करना इत्यादि बाह्य क्रियायें १. पाठान्तर: - अप्पसब्भावं । २. पाठान्तरः - आत्मस्वभावं । छोड़ा परिग्रह बाह्य मिथ्याभाव को नहिं छोड़ते । वे मौन ध्यान धरें परन्तु आतमा नहीं जानते । । ९७ ।। मूलगुण उच्छेद बाह्य क्रिया करें जो साधुजन । हैं विराधक जिनलिंग के वे मुक्ति-सुख पाते नहीं । । ९८ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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