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________________ २९० धण्णा सुकयत्था ते सुरा ते वि पंडिया मणुया । सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं । । ८९ ।। ते धन्याः सुकृतार्था: ते शूरा: तेऽपि पंडिता मनुजा: । सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि न मलिनितं यैः ।। ८९ ।। अष्टपाहुड अर्थ - जिन पुरुषों ने मुक्ति को करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्नावस्था में भी मलिन नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया वे पुरुष धन्य हैं, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं। भावार्थ - लोक में कुछ दानादिक करे उनको धन्य कहते हैं तथा विवाहादिक यज्ञादिक करते हैं उनको कृतार्थ कहते हैं, युद्ध में पीछा न लौटे उसको शूरवीर कहते हैं, बहुत शास्त्र पढ़े उसको पंडित कहते हैं। ये सब कहने के हैं जो मोक्ष के कारण सम्यक्त्व को मलिन नहीं करते हैं, निरतिचार पालते हैं उनको धन्य है, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं, वे ही मनुष्य हैं, इसके बिना मनुष्य पशुसमान है, इसप्रकार सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो ।। ८९ ।। आगे शिष्य पूछता है कि सम्यक्त्व कैसा है ? इसका समाधान करने के लिए इस सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न बताते हैं . हिंसारहिए धम् अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।। ९० ।। हिंसारहिते धर्मे अष्टादशदोषवर्जिते देवे । निर्ग्रथे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ।। ९० ।। अर्थ - हिंसारहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्ष का मार्ग तथा गुरु इनमें श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है। भावार्थ - लौकिकजन तथा अन्य मतवाले जीवों की हिंसा से धर्म मानते हैं और जिनमत में अहिंसा धर्म कहा है उसी का श्रद्धान करे, अन्य का श्रद्धान न करे वह सम्यग्दृष्टि है । लौकिक अन्य सब दोष विरहित देव अर हिंसारहित जिनधर्म में । निर्ग्रन्थ गुरु के वचन में श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।। ९० । यथाजातस्वरूप संयत सर्व संग विमुक्त जो । पर की अपेक्षा रहित लिंग जो मानते समदृष्टि वे । । ९१ । ।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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