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________________ २८४ अष्टपाहुड आधाकम्मम्मि रय ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ।।७९।। ये पंचचेलसक्ताः ग्रंथग्राहिण: याचनाशीलः। अध: कर्मणि रता: ते त्यक्ता: मोक्षमार्गे ।।७९।। अर्थ – पंच आदि प्रकार के चेल अर्थात् वस्त्रों में आसक्त हैं, अंडज, कपासज, वल्कल, चर्मज और रोमच इसप्रकार वस्त्रों में किसी एक वस्त्र को ग्रहण करते हैं.ग्रन्थग्राही अर्थात परिग्रह के ग्रहण करनेवाले हैं, याचनाशील अर्थात् माँगने का ही जिनका स्वभाव है और अध:कर्म अर्थात् पापकर्म में रत हैं, सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं। भावार्थ - यहाँ आशय ऐसा है कि पहिले तो निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि हो गये थे, पीछे कालदोष का विचारकर चारित्र पालने में असमर्थ हो निर्ग्रन्थ लिंग से भ्रष्ट होकर वस्त्रादिक अंगीकार कर लिये, परिग्रह रखने लगे, याचना करने लगे, अध:कर्म उद्देशिक आहार करने लगे उनका निषेध है, वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं। पहिले तो भद्रबाहु स्वामी तक निर्ग्रन्थ थे। पीछे दुर्भिक्षकाल में भ्रष्ट होकर जो अर्द्धफालक कहलाने लगे उनमें से श्वेताम्बर हुए, इन्होंने इस भेष को पुष्ट करने के लिए जो सूत्र बनाये, इनमें कई कल्पित आचरण तथा इसकी साधक कथायें लिखीं। इनके सिवाय अन्य भी कई भेष बदले, इसप्रकार कालदोष से भ्रष्ट लोगों का संप्रदाय चल रहा है, यह मोक्षमार्ग नहीं है, इसप्रकार बताया है। इसलिए इन भ्रष्ट लोगों को देखकर ऐसा भी मोक्षमार्ग है, ऐसा श्रद्धान न करना ।।७९।। आगे कहते हैं कि मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि हैं - णिग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ।।८।। निर्ग्रन्थाः मोहमुक्ताः द्वाविंशतिपरीषहाः जितकषायाः। पापारंभविमुक्ताः ते गृहीता: मोक्षमार्गे ।।८०॥ अर्थ - जो मुनि निर्ग्रन्थ हैं, परिग्रह रहित हैं, मोहरहित हैं जिनके किसी भी परद्रव्य से ममत्वभाव नहीं है, जो बाईस परीषहों को सहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया है और पापारंभ से रहित हैं। गहस्थ के करने योग्य आरंभादिक पापों में नहीं प्रवर्तते हैं, ऐ रे मुक्त हैं जो जितकषायी पाप के आरंभ से। परिषहजयी निग्रंथ वे ही मुक्तिमारग में कहे ।।८।। त्रैलोक में मेरा न कोई मैं अकेला आतमा। इस भावना से योगिजन पाते सदा सुख शास्वता ।।८१।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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