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________________ २८२ अष्टपाहुड भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावठिदे ण हुमण्णइ सो वि अण्णाणी ।।७६।। भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः। तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ।।७।। अर्थ - इस भरतक्षेत्र में दु:षमकाल-पंचमकाल में साधु मुनि के धर्मध्यान होता है यह धर्मध्यान आत्मस्वभाव में स्थित है उस मुनि के होता है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है उसको धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नहीं है। भावार्थ - जिनसूत्र में इस भरतक्षेत्र में पंचमकाल में आत्मभावना में स्थित मुनि के धर्मध्यान कहा है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है, उसको धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नहीं है ।।७६।। आगे कहते हैं कि जो इस काल में भी रत्नत्रय का धारक मुनि होता है वह स्वर्ग लोक में लौकान्तिकपद, इन्द्रपद प्राप्त करके यहाँ से चयकर मोक्ष जाता है, इसप्रकार जिनसूत्र में कहा है अज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहिं इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ।।७७।। अद्य अपि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानंध्यात्वा लभंते इन्द्रत्वम्। लौकान्तिकदेवत्वं तत: च्युत्वा निर्वृत्तिं यांति ।।७७।। अर्थ – अभी इस पंचमकाल में भी जो मुनि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की शुद्धता युक्त होते हैं वे आत्मा का ध्यान कर इन्द्रपद अथवा लौकान्तिकदेवपद को प्राप्त करते हैं और वहाँ से चयकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। भावार्थ - कोई कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में जिनसूत्र में मोक्ष होना कहा नहीं, इसलिए ध्यान करना तो निष्फल खेद है, उसको कहते हैं कि हे भाई ! मोक्ष जाने का निषेध किया है और शुक्लध्यान का निषेध किया है, परन्तु धर्मध्यान का निषेध तो किया नहीं। अभी भी जो मुनि रत्नत्रय से शुद्ध होकर धर्मध्यान में लीन होते हुए आत्मा का ध्यान करते हैं, वे मुनि स्वर्ग में रतनत्रय से शुद्ध आतम आतमा का ध्यान धर। आज भी हों इन्द्र आदिक प्राप्त करते मुक्ति फिर ।।७७।। जिन लिंग धर कर पाप करते पाप मोहितमति जो। वे च्युत हुए हैं मुक्तिमग से दुर्गति दुर्मति हो।।७८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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