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________________ २७८ अष्टपाहुड __ अर्थ - फिर जो पुरुष मुनि विषयों से विरक्त हो आत्मा को जानकर भाते हैं, बारंबार भावना द्वारा अनुभव करते हैं वे तप अर्थात् बारह प्रकार तप और मूलगुण उत्तरगुणों से युक्त होकर संसार को छोड़ते हैं, मोक्ष पाते हैं। भावार्थ - विषयों से विरक्त हो आत्मा को जानकर भावना करना, इससे संसार से छूटकर मोक्ष प्राप्त करो, यह उपदेश है ।।६८।। आगे कहते हैं कि यदि परद्रव्य में लेशमात्र भी राग हो तो वह पुरुष अज्ञानी है, अपना स्वरूप उसने नहीं जाना - परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ।।६९।। परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् । स: मूढ़ः अज्ञानी आत्मस्वभात् विपरीतः ।।६९।। अर्थ – जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी लेशमात्र मोह से रति अर्थात् राग-प्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से विपरीत है। भावार्थ - भेदविज्ञान होने के बाद जीव-अजीव को भिन्न जाने, तब परद्रव्य को अपना न जाने तब उससे (कर्तव्यबुद्धि-स्वामित्वबुद्धि की भावना से) राग भी नहीं होता है यदि (ऐसा) हो तो जानो कि इसने स्व-पर का भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से प्रतिकूल है और ज्ञानी होने के बाद चारित्रमोह का उदय रहता है जबतक कुछ राग रहता है उसको कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है, इसलिए विरक्त ही है, अत: ज्ञानी परद्रव्य से रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना ।।६९।। आगे इस अर्थ को संक्षेप से कहते हैं - अप्पा झायंताणं दसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं । होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ।।७।। आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् । यदि मोह से पर द्रव्य में रति रहे अणु प्रमाण में। विपरीतता के हेतु से वे मूढ़ अज्ञानी रहें।।६९।। शुद्ध दर्शन दृढ़ चरित एवं विषय विरक्त नर। निर्वाण को पाते सहज निज आतमा का ध्यान धर ।।७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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