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________________ २७१ मोक्षपाहुड वह अज्ञानी है जिनमत से प्रतिकूल है - जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो। सो तेण दुअण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ।।५६।। यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खंडदूषणकरः। स: तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः ।।५६।। अर्थ – जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान उसको खंडरूप दूषण करनेवाला है, इन्द्रियज्ञान खंड-खंडरूप है, अपने-अपने विषय को जानता है जो जीव इतना मात्र ही ज्ञान को मानता है, इसकारण से ऐसा माननेवाला अज्ञानी है, जिनमत को दूषित करता है। (अपने में महादोष उत्पन्न करता है) भावार्थ - मीमांसक मतवाला कर्मवादी है, सर्वज्ञ को नहीं मानता है, इन्द्रिय ज्ञानमात्र ही ज्ञान को जानता है, केवलज्ञान को नहीं मानता है, इसका यहाँ निषेध किया है, क्योंकि जिनमत में आत्मा का स्वभाव सबको जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कहा है, परन्तु वह कर्म के निमित्त से आच्छादित होकर इन्द्रियों के द्वारा क्षयोपशम के निमित्त से खंडरूप हुआ, खंड-खंड विषयों को जानता है (निज बल द्वारा) कर्मों का नाश होने पर केवलज्ञान प्रगट होता है तब आत्मा मीमांसक मतवाला नहीं मानता है, अत: वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है, कर्ममात्र में ही उसकी बुद्धि गत हो रही है, ऐसे कोई और भी मानते हैं वह ऐसा ही जानना ।।५६।। आगे कहते हैं कि जो ज्ञान-चारित्र रहित हो और तप सम्यक्त्व रहित हो तथा अन्य भी क्रिया भावपूर्वक न हो तो इसप्रकार केवल लिंग भेषमात्र ही से क्या सुख है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है - णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं । अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ।।५७।। ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम् । अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम् ।।५७।। चारित रहित है ज्ञान-दर्शन हीन तप संयुक्त है। क्रिया भाव विहीन तो मुनिवेष से क्या साध्य है।।५७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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