SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुड २६२ उत्पत्ति मानते हैं। इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्त्व मानकर परस्पर में विवाद करते हैं, वह युक्त ही है, वस्तु का पूर्णरूप दीखता नहीं है, तब जैसे अंधे हस्ती का विवाद करते हैं, वैसे विवाद ही होता है, इसलिए जिनदेव सर्वज्ञ ने ही वस्तु का पूर्णरूप देखा है, वही कहा है। यह प्रमाण और नयों के द्वारा अनेकान्तरूप सिद्ध होता है। इनकी चर्चा हेतवाद के जैन के न्याय-शास्त्रों से जानी जाती है, इसलिए यह उपदेश है, जिनमत में जीवाजीव का स्वरूप सत्यार्थ कहा है, उसको जानना सम्यग्ज्ञान है, इसप्रकार जानकर जिनदेव की आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञान को अंगीकार करना, इसी से सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है, ऐसे जानना। आगे सम्यक्चारित्र का स्वरूप कहते हैं - जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं ।।४२।। यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम् । तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः ।।४२ ।। अर्थ – योगी ध्यानी मुनि उस पूर्वोक्त जीवाजीव के भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान को जानकर पुण्य तथा पाप इन दोनों का परिहार करता है, त्याग करता है वह चारित्र है, जो निर्विकल्प है अर्थात् प्रवृत्तिरूपक्रिया के विकल्पों से रहित है, वह चारित्र घातिकर्म से रहित ऐसे सर्वज्ञदेव ने कहा है। भावार्थ - चारित्र निश्चय-व्यवहार के भेद से दो भेदरूप है, महाव्रत-समिति-गुप्ति के भेद से कहा है वह व्यवहार है। इसमें प्रवृत्तिरूप क्रिया शुभकर्मरूप बंध करती है और इन क्रियाओं में जितने अंश निवृत्ति है (अर्थात् उसीसमय स्वाश्रयरूप आंशिक निश्चय-वीतराग भाव है) उसका फल बंध नहीं है, उसका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है। सब कर्मों से रहित अपने आत्मस्वरूप में लीन होना वह निश्चय चारित्र है, इसका फल कर्म का नाश ही है, वह पुण्य-पाप के परिहाररूप निर्विकल्प है। पाप का तो त्याग मुनि के है ही और पुण्य का त्याग इसप्रकार है - __शुभक्रिया का फल पुण्यकर्म का बंध है, उसकी वांछा नहीं है ,बंध के नाश का उपाय निर्विकल्प निश्चय चारित्र का प्रधान उद्यम है। इसप्रकार यहाँ निर्विकल्प अर्थात् पुण्य-पाप से इमि जान करना त्याग सब ही पुण्य एवं पाप का। चारित्र है यह निर्विकल्पक कथन यह जिनदेव का ।।४२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy