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________________ भाव की महिमा बताते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रावकत्व व मुनित्व के कारणभूत भाव ही हैं। भावसहित द्रव्यलिंग से ही कर्मों का नाश होता है । यदि नग्नत्व से ही कार्यसिद्धि हो तो नारकी, पशु आदि सभी जीवसमूह को नग्नत्व के कारण मुक्ति प्राप्त होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, अपितु वे महादुःखी ही हैं। अत: यह स्पष्ट है कि भावरहित नग्नत्व से दु:खों की ही प्राप्ति होती है, संसार में ही भ्रमण होता है। बाह्य में नग्न मुनि पैशून्य, हास्य, भाषा आदि कार्यों से मलिन होता हुआ स्वयं अपयश को प्राप्त करता है एवं व्यवहार धर्म की भी हंसी कराता है; इसलिए आभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर ही निर्ग्रन्थ बाह्यलिंग धारण करना चाहिए। ___ भावरहित द्रव्यलिंग की निरर्थकता बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस मुनि में धर्म का वास नहीं है, अपितु दोषों का आवास है, वह तो इक्षुफल के समान है, जिसमें न तो मुक्तिरूपी फल लगते हैं और न रत्नत्रयरूप गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं। अधिक क्या कहें, वे तो नग्न होकर भी नाचनेवाले भांड के समान ही हैं।१४ अत: हे आत्मन् ! पहले मिथ्यात्वादि आभ्यन्तर दोषों को छोड़कर, भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर, बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग धारण करना चाहिए। शुद्धात्मा की भावना से रहित मुनियों द्वारा किया गया बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरिकन्दरादि का आवास, ज्ञान, अध्ययन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं। इसलिए हे मुनि ! लोक का मनोरंजन करनेवाला मात्र बाह्यवेष ही धारण न कर, इन्द्रियों की सेना का भंजन कर, विषयों में मत रम, मनरूपी बन्दर को वश में कर, मिथ्यात्व, कषाय व नव नोकषायों को भावशुद्धिपूर्वक छोड़, देव-शास्त्र-गुरु की विनय कर, जिनशास्त्रों को अच्छी तरह समझकर शुद्धभावों की भावना कर; जिससे तुझे क्षुधा-तृषादि वेदना से रहित त्रिभुवन चूड़ामणी सिद्धत्व की प्राप्ति होगी। हे मुनि ! तू बाईस परीषहों को सह; बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना कर; भावशुद्धि के लिए नवपदार्थ, सप्ततत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान आदि की नाम-लक्षणादिकपूर्वक भावना कर; दशप्रकार के अब्रह्मचर्य को छोडकर नवप्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रगट कर । इसप्रकार भावपर्वक द्रव्यलिंगी मनिही दर्शन. ज्ञान, चारित्र, तप को प्राप्त करता है, भावरहित द्रव्यलिंगी तो चारों गतियों में अनंत दु:खों को भोगता है। ___ हे मुनि ! तू संसार को असार जानकर केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्मल सम्यग्दर्शन सहित दीक्षा लेने की भावना कर, भावों से शुद्ध होकर बाह्यलिंग धारण कर, उत्तम गुणों का पालन कर । जीव, अजीव, आस्रव, बंध और संवरतत्त्व का चिन्तन कर, मन-वचन-काय से शुद्ध होकर आत्मा का चिन्तन कर; क्योंकि जबतक विचारणीय जीवादि तत्त्वों का विचार नहीं करेगा, तबतक अविनाशी पद की प्राप्ति नहीं होगी। १४. अष्टपाहुड, भावपाहुड, गाथा ७१ (१८)
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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