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________________ २५८ अष्टपाहुड सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च। स: जिनवरैः भणित: जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं ।।३५।। अर्थ – आत्मा को जिनवर सर्वज्ञदेव ने ऐसा कहा है कि सिद्ध है - किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, स्वयंसिद्ध है, शुद्ध है, कर्ममल से रहित है, सर्वज्ञ है - सब लोकालोक को जानता है और सर्वदर्शी है - सब लोक-अलोक को देखता है, इसप्रकार आत्मा है, वह हे मुने ! उसे ही तू केवलज्ञान जान अथवा उस केवलज्ञान को ही आत्मा जान । आत्मा में और ज्ञान में कछ प्रदेशभेद नहीं है, गुण-गुणी भेद है वह गौण है। यह आराधना का फल पहिले केवलज्ञान कहा, वही है ।।३५।। आगे कहते हैं कि जो योगी जिनदेव के मत से रत्नत्रय की आराधना करता है, वह आत्मा का ध्यान करता है - रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण। सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो ।।३६।। रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन । स: ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः ।।३६।। अर्थ – जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेव के मत की आज्ञा से रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की निश्चय से आराधना करता है वह प्रगट रूप से आत्मा का ही ध्यान करता है, क्योंकि रत्नत्रय आत्मा का गुण है और गुण-गुणी में भेद नहीं है। रत्नत्रय की आराधना है वह आत्मा की ही आराधना है, वह ही परद्रव्य को छोड़ता है, इसमें सन्देह नहीं है ।।३६।। भावार्थ - सुगम है।।३६।। पहिले पूछा था कि आत्मा में रत्नत्रय कैसे है इसका उत्तर अब आचार्य कहते हैं - जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पण्णपावाणं ।।७।। रतनत्रय जिनवर कथित आराधना जो यति करें। वे धरें आतम ध्यान ही संदेह इसमें रंच ना ।।३६।। जानना ही ज्ञान है अरु देखना दर्शन कहा। पुण्य-पाप का परिहार चारित यही जिनवर ने कहा ।।३७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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