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________________ २५६ अष्टपाड कहलाता है ।।३१।। आगे यह कहते हैं कि योगी पूर्वोक्त कथन को जान के व्यवहार को छोड़कर आत्मकार्य करता है - इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायइ परमप्पाणं जह भणियं 'जिणवरिंदेहिं ।।३२।। इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः ।।३२।। अर्थ – इसप्रकार पूर्वोक्त कथन को जानकर योगी ध्यानी मुनि है वह सर्व व्यवहार को सब प्रकार से ही छोड़ देता है और परमात्मा का ध्यान करता है - जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसे ही परमात्मा का ध्यान करता है। भावार्थ -सर्वथा सर्व व्यवहार को छोड़ना कहा, उसका आशय इसप्रकार है कि लोकव्यवहार तथा धर्मव्यवहार सब ही छोड़ने पर ध्यान होता है इसलिए जैसे जिनदेव ने कहा है वैसे ही परमात्मा का ध्यान करना । अन्यमती परमात्मा का स्वरूप अनेकप्रकार से अन्यथा कहते हैं उसके ध्यान का भी वे अन्यथा उपदेश करते हैं, उसका निषेध किया है। जिनदेव ने परमात्मा का तथा ध्यान का स्वरूप कहा वह सत्यार्थ है, प्रमाणभूत है वैसे ही जो योगीश्वर करते हैं वे ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं।।३२।। आगे जिनदेव ने जैसे ध्यान-अध्ययन की प्रवृत्ति कही है, वैसे ही उपदेश करते हैं - पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह ।।३३।। पंचमहाव्रतयुक्त: पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु। रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ।।३३।। इमि जान जोगी छोड़ सब व्यवहार सर्वप्रकार से। जिनवर कथित परमातमा का ध्यान धरते सदा ही ।।३२।। पंच समिति महाव्रत अर तीन गुप्ति धर यती। रत्नत्रय से युक्त होकर ध्यान अर अध्ययन करो।।३३।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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