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________________ २५३ मोक्षपाहुड लोयववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो ।।२७।। सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागदोषव्यामोहम्। लोकव्यवहारविरत: आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ।।२७।। अर्थ – मुनि सब कषायों को छोड़कर तथा गारव, मद, राग, द्वेष तथा मोह इनको छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यान में स्थित हुआ आत्मा का ध्यान करता है ।।२७।। भावार्थ - मुनि आत्मा का ध्यान ऐसा होकर करे - प्रथम तो क्रोध, मान, माया, लोभ इन सब कषायों को छोड़े, गारव को छोड़े, मद जाति आदि के भेद से आठ प्रकार का है, उसको छोड़े, राग-द्वेष छोड़े और लोकव्यवहार जो संघ में रहने में परस्पर विनयाचार, वैयावृत्त्य, धर्मोपदेश पढ़ना-पढ़ाना है, उसको भी छोड़े, ध्यान में स्थित हो जावे - इसप्रकार आत्मा का ध्यान करे । यदि कोई पूछे कि सब कषायों को छोड़ना कहा है उसमें तो सब गारव मदादिक आ गये फिर इनको भिन्न-भिन्न क्यों कहे ? उसका समाधान इसप्रकार है कि ये सब कषायों में तो गर्भित हैं, किन्तु विशेषरूप से बतलाने के लिए भिन्न-भिन्न कहे हैं। कषाय की प्रवृत्ति इसप्रकार है - जो अपने लिए अनिष्ट हो उससे क्रोध करे, अन्य को नीचा मानकर मान करे, किसी कार्य निमित्त कपट करे, आहारादिक में लोभ करे। यह गारव है वह रस, ऋद्धि और सात ऐसे तीन प्रकार का है ये यद्यपि मानकषाय में गर्भित हैं तो भी प्रमाद की बहुलता इनमें है इसलिए भिन्नरूप से कहे हैं। ___ मद-जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य - इनका होता है, वह न करे । रागद्वेष प्रीति-अप्रीति को कहते हैं, किसी से प्रीति करना किसी से अप्रीति करना - इसप्रकार लक्षण के भेद से भेद करके कहा । मोह नाम पर से ममत्वभाव का है, संसार का ममत्व तो मुनि के है ही नहीं, परन्तु धर्मानुराग से शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है, वह भी छोड़े। इसप्रकार भेद विवक्षा से भिन्न-भिन्न कहे हैं, ये ध्यान के घातक भाव हैं इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं है, इसलिए जैसे ध्यान हो वैसे करे ।।२७।। आगे इसी को विशेषरूप से कहते हैं - मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ।।२८।। मिथ्यात्वं अज्ञानं पापं पुण्यं त्यक्त्वा त्रिविधेन। मिथ्यात्व एवं पाप-पुन अज्ञान तज मन-वचन से। अर मौन रह योगस्थ योगी आतमा को ध्यावते ।।२८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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