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________________ २४० अष्टपाहुड __ अर्थ - आगे कहेंगे कि परमात्मा को जानकर योगी (मुनि) योग (ध्यान) में स्थित होकर निरन्तर उस परमात्मा को अनुभवगोचर करके निर्वाण को प्राप्त होता है। कैसा है निर्वाण ? 'अव्याबाध' है, जहाँ किसी प्रकार की बाधा नहीं है। 'अनन्त' है जिसका नाश नहीं है। 'अनुपम' है, जिसको किसी की उपमा नहीं लगती है। भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि ऐसे परमात्मा को आगे कहेंगे जिसके ध्यान में मुनि निरंतर अनुभव करके केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। यहाँ यह तात्पर्य है कि परमात्मा के ध्यान से मोक्ष होता है ।।३।। आगे परमात्मा कैसा है ऐसा बताने के लिए आत्मा को तीन प्रकार का दिखाते हैं - तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चइवि बहिरप्पा ।।४।। त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्त: बहिः स्फुटं देहिनाम् । तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानम् ।।४।। अर्थ - वह आत्मा प्राणियों के तीन प्रकार का है; अंतरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा। अंतरात्मा के उपाय द्वारा बहिरात्मपन को छोड़कर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। भावार्थ - बहिरात्मपन को छोड़कर अंतरात्मास्वरूप होकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए, इससे मोक्ष होता है ।।४।। आगे तीनप्रकार के आत्मा का स्वरूप दिखाते हैं - अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा तु अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।।५।। अक्षाणि बहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसंकल्पः। कर्मकलंकविमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः ।।५।। १. मुद्रित संक्र प्रति में 'हु हेऊण' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'तु हित्वा' की है। त्रिविध आतमराम में बहिरातमापन त्यागकर । अन्तरात्म के आधार से परमात्मा का ध्यान धर ।।४।। ये इन्द्रियाँ बहिरात्मा अनुभूति अन्तर आतमा। जो कर्ममल से रहित हैं वे देव हैं परमातमा ।।५।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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