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________________ २२४ अष्टपाहुड __ भावार्थ - जिनलिंग अर्थात् ‘निर्ग्रन्थ मुनिभेष' यद्यपि तपव्रतसहित निर्मल है, तो भी सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है। इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है ।।१४६।। आगे कहते हैं कि ऐसा जानकर दर्शनरत्न को धारण करो, ऐसा उपदेश करते हैं - इय णाउं गुणदोसं दसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ।।१४७।। इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरतभावेन । सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ।।१४७।। अर्थ – हे मुने ! तू ‘इति' अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्व के दोषों को जानकर सम्यक्त्वरूपी रत्न को भावपूर्वक धारण कर । यह गुणरूपी रत्नों में सार है और मोक्षरूपी मंदिर का प्रथम सोपान है अर्थात् चढ़ने के लिए पहिली सीढ़ी है। भावार्थ - जितने भी व्यवहार मोक्षमार्ग के अंग हैं (गृहस्थ के दानपूजादिक और मुनि के महाव्रत शीलसंयमादिक) उन सबमें सार सम्यग्दर्शन है, इससे सब सफल हैं, इसलिए मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दर्शन अंगीकार करो, यह प्रधान उपदेश है ।।१४७।। __ आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन किसको होता है ? जो जीव, जीव पदार्थ के स्वरूप को जानकर इसकी भावना करे, इसका श्रद्धान करके अपने को जीव पदार्थ जानकर अनुभव द्वारा प्रतीति करे उसके होता है। इसलिए अब यह जीवपदार्थ कैसा है, उसका स्वरूप कहते हैं - कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दंसणणाणुवओगो 'णिहिट्ठो जिणवरिंदेहिं ।।१४८।। कर्ता भोक्ता अमूर्त्तः शरीरमात्रः अनादिनिधन: च । दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः ।।१४८।। अर्थ – 'जीव' नामक पदार्थ है सो कैसा है - कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तिक है, शरीरप्रमाण है, अनादिनिधन है, दर्शन-ज्ञान उपयोगवाला है इसप्रकार जिनवरेन्द्र सर्वज्ञदेव वीतराग ने कहा है। भावार्थ - यहाँ 'जीव' नामक पदार्थ के छह विशेषण कहे । इनका आशय ऐसा है कि - १. कर्ता' कहा, वह निश्चयनय से तो अपने अशुद्ध भावों का अज्ञान अवस्था में आप ही कर्ता है तथा व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का कर्ता है और शुद्धनय से अपने शुद्धभावों का कर्ता है।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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