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________________ २२२ अष्टपाहुड कालदोष से इस पंचमकाल में अनेक पक्षपात से मत-मतान्तर हो गये हैं, उनको भी मिथ्या जानकर उनका प्रसंग न करो। सर्वथा एकान्त का पक्षपात छोड़कर अनेकान्तरूप जिनवचन का शरण लो।।१४२।। आगे सम्यग्दर्शन का निरूपण करते हैं, पहिले कहते हैं कि “सम्यग्दर्शनरहित प्राणी चलता हुआ मृतक” है - जीवविमुक्को सबओ दंसणमुक्को य होइ चलसबओ। सबओ लोयअपुजो लोउत्तरयम्मि चलसबओ।।१४३।। जीवविमुक्तः शव: दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवः। शव: लोके अपूज्य: लोकोत्तरे चलशवः ।।१४३।। अर्थ – लोक में जीवरहित शरीर को 'शव' कहते हैं, 'मृतक' या 'मुरदा' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शनरहित पुरुष 'चलता हुआ मृतक' है। मृतक तो लोक में अपूज्य है, अग्नि से जलाया जाता है या पृथ्वी में गाड़ दिया जाता है और दर्शनरहित चलता हुआ मुरदा' लोकोत्तर जो मुनिसम्यग्दृष्टि उनमें अपूज्य है, वे उसको वंदनादि नहीं करते हैं। मुनिभेष धारण करता है तो भी उसे संघ के बाहर रखते हैं अथवा परलोक में निंद्य गति पाकर अपूज्य होता है। भावार्थ – सम्यग्दर्शन बिना पुरुष मृतकतुल्य है ।।१४३।। आगे सम्यक्त्व का महान्पना (माहात्म्य) कहते हैं - जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ।।१४४।। यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराज: मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वंऋषिश्रावकद्विविधधर्माणाम् ।।१४४।। १. मुद्रित सं. प्रति में 'तह वयविमलं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत तथा व्रतविमलं' है। २. इस गाथा का चतुर्थ पाद यतिभंग है। इसकी जगह 'जिणलिंग दंसणेय सुविसुद्धं होना ठीक ऊंचता है। चन्द्र तारागण सहित ही लसे नभ में जिसतरह । व्रत तप तथा दर्शन सहित जिनलिंग शोभे उसतरह ।।१४६।। इमि जानकर गुण-दोष मुक्ति महल की सीढ़ी प्रथम । गुण रतन में सार समकित रतन को धारण करो ।।१४७ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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