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________________ भावपाहुड २०९ रुद्दट्ट झाइयाई इमेण जीवेण चिरकालं ।।१२१।। ध्याय धन॑ शुक्लं आ रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा । रौद्रार्ते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ।।१२१।। अर्थ – हे मुने ! तू आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ और धर्म-शुक्लधयान हैं, उन्हें ही कर, क्योंकि रौद्र और आर्तध्यान तो इस जीव ने अनादिकाल से बहुत समय तक किये हैं। भावार्थ - आर्त-रौद्र ध्यान अशुभ है, संसार के कारण हैं। ये दोनों ध्यान तो जीव के बिना उपदेश ही अनादि से पाये जाते हैं, इसलिए इनको छोड़ने का उपदेश है। धर्म-शुक्ल ध्यान स्वर्गमोक्ष के कारण हैं। इनको कभी नहीं ध्याये, इसलिए इनके ध्यान करने का उपदेश है। ध्यान का स्वरूप 'एकाग्रचिंतानिरोध' कहा है। धर्मध्यान में तो धर्मानुराग का सद्भाव है सो धर्म के मोक्षमार्ग के कारण में रागसहित एकाग्रचिंतानिरोध होता है, इसलिए शुभराग के निमित्त से पुण्यबंध भी होता है और विशुद्ध भाव के निमित्त से पापकर्म की निर्जरा भी होती है। शुक्लध्यान में आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ गुणस्थान में तो अव्यक्त राग है। वहाँ अनुभव-अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है, इसलिए ‘शुक्ल' नाम रखा है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग-कषाय का अभाव ही है, इसलिए सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्लध्यान युक्त ही है। इतनी और विशेषता है कि उपयोग के एकाग्रपनारूप ध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही है। उस अपेक्षा से तेरहवेंचौदहवें गुणस्थान में ध्यान का उपचार है और योगक्रिया के स्थंभन की अपेक्षा ध्यान कहा है। यह शुक्लध्यान कर्म की निर्जरा करके जीव को मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यान का उपदेश जानना ।।१२१।। आगे कहते हैं कि यह ध्यान भावलिंगी मुनियों को मोक्ष करता है - जे के विदव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति। छिंदंति भावसवणा झाणकढारेहिं भवरुक्खं ।।१२२।। ये केऽपि द्रव्यश्रमणा इन्द्रियसुखाकुला: न छिंदन्ति । ज्यों गर्भगृह में दीप जलता पवन से निर्बाध हो। त्यों जले निज में ध्यान दीपक राग से निर्बाध हो ।।१२३।। शुद्धात्म एवं पंचगुरु का ध्यान धर इस लोक में। वे परम मंगल परम उत्तम और वे ही हैं शरण ।।१२४।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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