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________________ २०३ भावपाहुड आगे कहते हैं कि पाप-पुण्य और बन्ध-मोक्ष का कारण परिणाम ही है - पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा। परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो ।।११६।। पापं भवति अशेषं पुण्यमशेषं च भवति परिणामात् । परिणामाद् बंधः मोक्षः जिनशासने दृष्टः ।।११६।। अर्थ – पाप-पुण्य, बंध-मोक्ष का कारण परिणाम ही को कहा है। जीव के मिथ्यात्व, विषय-कषाय, अशुभलेश्यारूप तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे तो पापास्रव का बंध होता है। परमेष्ठी की भक्ति, जीवों पर दया इत्यादिक मंदकषाय शुभलेश्यारूप परिणाम होते हैं, इससे पुण्यास्रव का बंध होता है। शुद्धपरिणामरहित विभावरूप परिणाम से बंध होता है। शुद्धभाव के सन्मुख रहना, उसके अनुकूल शुभ परिणाम रखना, अशुभ परिणाम सर्वथा दूर करना, यह उपदेश है।।११६।। आगे पुण्य-पाप का बंध जैसे भावों से होता है, उनको कहते हैं । पहिले पापबंध के परिणाम कहते हैं - मिच्छत्त तह कसायासंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं । बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो ।।११७।। मिथ्यात्वं तथा कषायासंयमयोगैः अशुभलेश्यैः। बध्नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराङ्मुख: जीवः।।११७।। अर्थ – मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योग जिनमें अशुभ लेश्या पाई जाती है इसप्रकार के भावों से यह जीव जिनवचन से पराङ्मुख होता है-अशुभकर्म को बांधता है वह पाप ही बांधता है। भावार्थ - ‘मिथ्यात्वभाव' तत्त्वार्थ का श्रद्धानरहित परिणाम है। ‘कषाय' क्रोधादिक हैं। 'असंयम' परद्रव्य के ग्रहणरूप है, त्यागरूप भाव नहीं, इसप्रकार इन्द्रियों के विषयों से प्रीति और जीवों की विराधनासहित भाव हैं। 'योग' मन-वचन-काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों का चलना भावशुद्धीवंत अर जिन-वचन अराधक जीव ही। हैं बाँधते शुभकर्म यह संक्षेप में बंधन-कथा ।।११८।। अष्टकर्मों से बंधा हूँ अब इन्हें मैं दग्धकर। ज्ञानादिगण की चेतना निज में अनंत प्रकट करूँ।।११९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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