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________________ भावपाहुड १९३ इसलिए तिर्यंचगति में पहिले भ्रमण किया और कष्ट सहा, इसलिए भाव शुद्ध करके शुद्ध आहार कर जिससे फिर भ्रमण न करे । छियालीस दोषों में सोलह तो उद्गम दोष हैं, वे आहार के बनने के हैं, ये श्रावक के आश्रित हैं। सोलह उत्पादन दोष हैं, ये मुनि के आश्रित हैं। दस दोष एषणा के हैं, ये आहार के आश्रित हैं। चार प्रमाणादि के हैं। इनके नाम तथा स्वरूप मूलाचार', 'आचारसार' ग्रंथ से जानिये ।।१०१।। आगे फिर कहते हैं - सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्पेणऽधी पभुत्तूण। पत्तो सि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत ।।१०२।। सचित्तभक्तपानं गृद्धया दर्पण अधी: प्रभुज्य। प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चिन्तय ।।१०२।। अर्थ – हे जीव ! तू दुर्बुद्धि (अज्ञानी) होकर अतिचार सहित तथा अतिगर्व (उद्धतपने) से सचित्त भोजन तथा पान, जीवसहित आहार पानी लेकर अनादिकाल से तीव्र दुःख को पाया, उसका चिन्तवन कर-विचार कर। भावार्थ - मुनि को उपदेश करते हैं कि अनादिकाल से जबतक अज्ञानी रहा जीव का स्वरूप नहीं जाना तबतक सचित्त (जीव सहित) आहार पानी करते हुए संसार में तीव्र नरकादिक के दुःख को पाया। अब मुनि होकर भाव शुद्ध करके सचित्त आहार पानी मत करे, नहीं तो फिर पूर्ववत् दुःख भोगेगा ।।१०२।। आगे फिर कहते हैं - कंदं मूलं बीयं पुप्फ पत्तादि किंचि सच्चित्तं । असिऊण माणगव्वं भमिओ सि अणतसंसारे ।।१०३।। कंदं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् । अशित्वा मानगर्वे भ्रमित: असि अनंतसंसारे ।।१०३।। अर कंद मूल बीज फूल पत्र आदि सचित्त सब । सेवन किये मदमत्त होकर भ्रमे भव में आजतक ।।१०३।। विनय पंच प्रकार पालो मन वचन अर काय से। अविनयी को मुक्ति की प्राप्ति कभी होती नहीं।।१०४।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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