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________________ भावपाहुड १८९ आगे कहते हैं कि जो परीषह सहने में दृढ़ होता है तो उपसर्ग आने पर भी दृढ़ रहता है, च्युत नहीं होता, उसका दृष्टान्त कहते हैं - जह पत्थरोण भिजइ परिट्ठिओ दीहकालमुदएण। तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो ।।९५।। यथा प्रस्तरः न भिद्यते परिस्थित: दीर्घकालमुदकेन । तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्गपरीषहेभ्यः ।।१५।। अर्थ – जैसे पाषाण जल में बहुत काल तक रहने पर भी भेद को प्राप्त नहीं होता है वैसे ही साधु उपसर्ग परीषहों से नहीं भिदता है। भावार्थ - पाषाण ऐसा कठोर होता है कि यदि वह जल में बहुत समय तक रहे तो भी उसमें जल प्रवेश नहीं करता है, वैसे ही साधु के परिणाम भी ऐसे दृढ़ होते हैं कि उपसर्ग परीषह आने पर भी संयम के परिणाम से च्युत नहीं होता है और पहिले कहा जो संयम का घात जैसे न हो, वैसे परीषह सहे । यदि कदाचित् संयम का घात होता जाने तो जैसे घात न हो वैसे करे ।।९५।। आगे परीषह आने पर भाव शुद्ध रहे ऐसा उपाय कहते हैं - भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि। भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ।।९६।। भावय अनुप्रेक्षा: अपरा: पंचविंशतिभावना: भावय। भावरहितेन किं पुन: बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम् ।।९६।। अर्थ – हे मुने ! तू अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं उनकी भावना कर और अपर अर्थात् पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावना कही है उनकी भावना कर, भावरहित जो बाह्यलिंग है उससे क्या कर्त्तव्य है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। भावार्थ - कष्ट आने पर बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना योग्य है। इनके नाम ये हैं - १. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आस्रव, है सर्वविरती तथापि तत्त्वार्थ की भा भावना। गुणथान जीवसमास की भी तू सदा भा भावना ।।९७।। भयंकर भव-वन विर्षे भ्रमता रहा आशक्त हो। बस इसलिए नवकोटि से ब्रह्मचर्य को धारण करो ।।१८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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