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________________ १७६ मार्ग है। भावार्थ: - भाव शुद्ध हुए बिना पहिले ही दिगम्बररूप धारण कर ले तो पीछे भाव बिगड़े तब भ्रष्ट हो जाय और भ्रष्ट होकर भी मुनि कहलाता रहे तो मार्ग की हँसी करावे, इसलिए जिन आज्ञा यही है कि भाव शुद्ध करके बाह्यमुनिपना प्रगट करो ।। ७३ ।। - आगे कहते हैं कि शुद्ध भाव ही स्वर्गमोक्ष का कारण है, मलिनभाव संसार का कारण है भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो । कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ।।७४ ।। भावः अपि दिव्यशिवसौख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः । ।७४ ।। अर्थ - भाव ही स्वर्ग-मोक्ष का कारण है और भावरहित श्रमण पापस्वरूप है, तिर्यंचगति का स्थान है तथा कर्ममल से मलिन चित्तवाला है । अष्टपाहुड भावार्थ भाव से शुद्ध है वह तो स्वर्ग-मोक्ष का पात्र है और भाव से मलिन है वह तिर्यंचगति में निवास करता है ।। ७४ ।। आगे फिर भाव के फल का माहात्म्य कहते हैं - - - खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला । चक्कहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभावेण ।। ७५ ।। खचरामरमनुजकरांजलिमालाभिश्च संस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधि: सुभावेन । ७५ ।। अर्थ - सुभाव अर्थात् भले भाव से मंदकषायरूप विशुद्धभाव से चक्रवर्ती आदि राजाओं की विपुल अर्थात् बड़ी लक्ष्मी पाता है । कैसी है - खचर ( विद्याधर), अमर (देव) और मनुज (मनुष्य) इसकी अंजुलिमाला (हाथों की अंजुलि) की पंक्ति से संस्तुत (नमस्कारपूर्वक करने योग्य) है और यह केवल लक्ष्मी ही नहीं पाता है, किन्तु बोधि (रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग) भी सुभाव से ही प्राप्त करते बोधि अर चक्रेश पद । नर अमर विद्याधर नमें जिनको सदा कर जोड़कर ।। ७५ ।। शुभ अशुभ एवं शुद्ध इसविधि भाव तीन प्रकार के । रौद्रार्त तो हैं अशुभ किन्तु शुभ धरममय ध्यान है ।। ७६ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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