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________________ १७४ प्रकटय जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः । भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति ॥ ७० ॥ अर्थ - हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवरलिंग अर्थात् बाह्य निर्ग्रन्थलिंग प्रकट कर, भावशुद्धि के बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव बाह्य परिग्रह में मलिन होता है। य भावार्थ - यदि भाव शुद्ध कर द्रव्यलिंग धारण करे तो भ्रष्ट न हो और भाव मलिन होतो बाह्य परिग्रह की संगति से द्रव्यलिंग भी बिगाड़े इसलिए प्रधानरूप से भावलिंग ही का उपदेश है, विशुद्ध भावों के बिना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है ।। ७० ।। - आगे कहते हैं कि जो भावरहित नग्न मुनि है, वह हास्य का स्थान है धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो १ उ च छ, फ, ल्ल समा णिप्फलिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण । । ७१ ।। I अष्टपाहुड धर्मे निप्रवासः दोषावासः च इक्षुपुष्पसमः । निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण । । ७१।। अर्थ - धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दसलक्षणस्वरूप में जिसका वास नहीं है वह जीव दोषों का आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं, वह इक्षु के फूल के समान है, जिसके न तो कुछ फल ही लगते हैं और न उसमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं। इसलिए ऐसा मुनि तो नग्नरूप करके नटश्रमण अर्थात् नाचनेवाले भाँड के स्वांग के समान है । भावार्थ - जिसके धर्म की वासना नहीं है, उसमें क्रोधादिक दोष ही रहते हैं । यदि वह दिगम्बर रूप धारण करे तो वह मुनि इक्षु के फूल के समान निर्गुण और निष्फल है, ऐसे मुनि के मोक्षरूप फल नहीं लगते हैं । सम्यग्ज्ञानादिक गुण जिसमें नहीं हैं, वह नग्न होने पर भांड जैसा १. 'उच्छु' पाठान्तर 'इच्छु' सद्धर्म का न वास जह तह दोष का आवास है । है निरर्थक निष्फल सभी सद्ज्ञान बिन हे नटश्रमण ।। ७९ ।। जिनभावना से रहित रागी संग से संयुक्त जो निर्ग्रन्थ हों पर बोधि और समाधि को पाते नहीं ।। ७२ ।। 1
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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