SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावपाहुड १७१ पंचास्तिकाय में १२७, धवला टीका पु. ३ पृ. २, लघु द्रव्य संग्रह गाथा ५ आदि में भी है। इसका व्याख्यान टीकाकारों ने विशेष कहा है वह वहाँ से जानना चाहिए ।।६४।। आगे जीव का स्वभाव ज्ञानस्वरूप भावना कहा वह ज्ञान कितने प्रकार का भाना यह कहते हैं - भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्धं । भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ ।।६५।। भावय पंचप्रकारं ज्ञानं अज्ञाननाशनं शीघ्रम् । भावनाभावितसहित: दिवशिवसुखभाजनं भवति ।।६५।। अर्थ - हे भव्यजन ! तू यह ज्ञान पाँच प्रकार से भा. कैसा है यह ज्ञान ? अज्ञान का नाश करनेवाला है, कैसा होकर भा ? भावना से भावित जो भाव उस सहित भा, शीघ्र भा, इससे तू दिव (स्वर्ग) और शिव (मोक्ष) का पात्र होगा। भावार्थ - यद्यपि ज्ञान जानने के स्वभाव से एक प्रकार का है तो भी कर्म के क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा पाँच प्रकार का है। उसमें मिथ्यात्वभाव की अपेक्षा से मति, श्रुत और अवधि ये तीन मिथ्याज्ञान भी कहलाते हैं, इसलिए मिथ्याज्ञान का अभाव करने के लिए मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानस्वरूप पाँच प्रकार का सम्यग्ज्ञान जानकर उनको भाना। परमार्थ विचार से ज्ञान एक ही प्रकार का है। यह ज्ञान की भावना स्वर्ग-मोक्ष की दाता है ।।६५।। आगे कहते हैं कि पढ़ना-सुनना भी भाव बिना कुछ नहीं है - पढिएण वि किंकीरइ किंवा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ।।६६।। पठितेनापि किं क्रियते किंवा श्रुतेन भावरहितेन । भावः कारणभूत: सागारानगारभूतानाम् ।।६६।। अर्थ – भावरहित पढ़ने सुनने से क्या होता है ? अर्थात् कुछ भी कार्यकारी नहीं है, इसलिए श्रावकत्व तथा मनित्व इनका कारणभत भाव ही है। श्रमण श्रावकपने का है मूल कारण भाव ही। क्योंकि पठन अर श्रवण से भी कुछ नहीं हो भावबिन ।।६६।। द्रव्य से तो नग्न सब नर नारकी तिर्यंच हैं। पर भावशुद्धि के बिना श्रमणत्व को पाते नहीं।।६७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy