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________________ अष्टपाड १६२ बनानेवालों ने बाहर पर्वतादि में फेंक दी। तब बरतनों की मदिरा तथा मद्य की सामग्री जल के गों में फैल गई। फिर बारह वर्ष बीते जानकर दीपायन द्वारिका आकर, नगर के बाहर आतापन योग धारण कर स्थित हुए। भगवान के वचन की प्रतीति न रखी। पीछे शंभवकुमारादि क्रीड़ा करते हुए प्यासे होकर कुंडों में जल जानकर पी गये। उस मद्य के निमित्त से कुमार उन्मत्त हो गये। वहाँ दीपायन मुनि को खड़ा देखकर कहने लगे - 'यह द्वारिका को भस्म करनेवाला दीपायन है' इसप्रकार कहकर उसको पाषाणादिक से मारने लगे। तब दीपायन भूमि पर गिर पड़ा, उसको क्रोध उत्पन्न हो गया, उसके निमित्त से द्वारिका जलकर भस्म हो गई। इसप्रकार दीपायन भावशुद्धि के बिना अनन्त संसारी हुआ।।५०।। आगे भावशुद्धिसहित मुनि हुए और उन्होंने सिद्धि पाई, उसका उदाहरण कहते हैं - भावसमणो य धीरो जुवईजणबेढियो विसुद्धमई। णामेण सिवकुमारो परीत्तसंसारिओ जादो ।।५१।। भावश्रमणश्च धीर: युवतिजनवेष्टित: विशुद्धमतिः। नाम्ना शिवकुमारः परित्यक्तसांसारिकः जातः ।।५१।। अर्थ – शिवकुमार नामक भावश्रमण स्त्रीजनों से वेष्टित हुए भी विशुद्ध बुद्धि का धारक धीर संसार को त्यागनेवाला हुआ। भावार्थ - शिवकुमार ने भाव की शुद्धता से ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्माली देव होकर वहाँ से चय कर जंबूस्वामी केवली होकर मोक्ष प्राप्त किया। उसकी कथा इसप्रकार है - इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश के वीतशोकपुर में महापद्म राजा की वनमाला रानी के शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। वह एक दिन मित्र सहित वनक्रीड़ा करके नगर में आ रहा था। उसने मार्ग में लोगों को पूजा की सामग्री ले जाते हुए देखा । तब मित्र को पूछा - ये कहाँ जा रहे हैं ? मित्र ने कहा, ये सगरदत्त नामक ऋद्धिधारी मुनि को पूजने के लिए वन में जा रहे हैं। तब शिवकुमार ने मुनि के पास जाकर अपना पूर्वभव सुन संसार से विरक्त हो दीक्षा ले ली और दृढ़धर नामक श्रावक के घर प्रासुक आहार लिया। उसके बाद स्त्रियों के निकट असिधाराव्रत परम शुद्धबुद्धी भावलिंगी अंगनाओं से घिरे । होकर भी शिवकुमार मुनि संसारसागर तिर गये ।।५१।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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