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________________ भावपाहुड १५३ आगे यह जीव शरीरसहित उत्पन्न होता है और मरता है, उस शरीर में रोग होते हैं, उनकी संख्या दिखाते हैं - एक्केक्कंगुलिवाही छण्णवदी होति जाण मणुयाणं। अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया ।।३७।। एकैकांगुलौव्याधय: पण्णवति: भवंति जानीहि मनुष्यानां। अवशेषे च शरीरे रोगा: भण कियन्त: भणिताः ।।३७।। अर्थ – इस मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल में छयानवे-छयानवे रोग होते हैं, तब कहो अवशेष समस्त शरीर में कितने रोग कहें ।।३७।। आगे कहते हैं कि जीव ! उन रोगों का दुःख तूने सहा - ते रोया वि य सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं ।।३८।। तेरोगा अपिचसकला: सोढास्त्वया परवशेण पर्वभवे। एवं सहसे महायश: ! किं वा बहुभिः लपितैः ।।३८।। अर्थ – हे महायश ! हे मुने ! तूने पूर्वोक्त सब रोगों को पूर्वभवों में तो परवश सहे, इसप्रकार ही फिर सहेगा, बहुत कहने से क्या ? भावार्थ - यह जीव पराधीन होकर सब दु:ख सहता है। यदि ज्ञान भावना करे और दु:ख आने पर उससे चलायन न हो, इसतरह स्ववश होकर सहे तो कर्म का नाशकर मुक्त हो जावे, इसप्रकार जानना चाहिए ।।३८।। आगे कहते हैं कि अपवित्र गर्भवास में भी रहा - पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमिजाले। उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं ।।३९।। पित्तांत्रमूत्रफेफसयकद्रुधिरखरिसकृमिजाले । पूर्वभव में सहे परवश रोग विविध प्रकार के। अरसहोगे बहुभाँति अब इससे अधिक हम क्या कहें?।।३८।। कृमिकलित मज्जा-मांस-मज्जित मलिन महिला उदर में। नवमास तक कई बार आतम तू रहा है आजतक ।।३९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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