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________________ १४२ अष्टपाहुड भवसागरे अनन्ते छिन्नोज्झितानि केशनखरनालास्थीनि। पुञ्जयति यदि कोऽपि देव: भवति च गिरिसमाधिक: राशिः ।।२०।। अर्थ – हे मुने ! इस अनन्त संसार सागर में तूने जन्म लिये, उनमें केश, नख, नाल और अस्थि कटे, टूटे उनका यदि कोई देव पुंज करे तो मेरु पर्वत से भी अधिक राशि हो जावे, अनन्तगुणा हो जावे ।।२०।। आगे कहते हैं कि हे आत्मन् ! तू जल थल आदि स्थानों में सब जगह रहा है - जलथलसिहिपवणंवरगिरिसरिदरितरुवणाइ सव्वत्थ । वसिओ सि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो।।२१।। जलस्थलशिखिपवनांवरगिरिसरिहरीतरुवनादिषु सर्वत्र। उचितोऽपि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः ।।२१।। अर्थ – हे जीव ! तू जल में, थल अर्थात् भूमि में, शिखि अर्थात् अग्नि में, पवन में, अम्बर अर्थात् आकाश में, गिरि अर्थात् पर्वत में, सरित् अर्थात् नदी में, दरी अर्थात् पर्वत की गुफा में, तरु अर्थात् वृक्षों में, वनों में और अधिक क्या कहें सब ही स्थानों में, तीनलोक में अनात्मवश अर्थात् पराधीनवश होकर बहुत काल तक रहा अर्थात् निवास किया। भावार्थ - निज शुद्धात्मा की भावना बिना कर्म के आधीन होकर तीन लोक में सर्व दुःखसहित सर्वत्र निवास किया।॥२१॥ __ आगे फिर कहते हैं कि हे जीव ! तूने इस लोक में सर्व पुद्गल भक्षण किये तो भी तृप्त नहीं हुआ - गसियाई पुग्गलाई भुवणोदरवत्तियाइं सव्वाई। पत्तो सि तो ण तित्तिं 'पुणरुत्तं ताइं भुजतो ।।२२।। * पाठान्तर ‘वणाई', 'वणाई। १. मुद्रित संस्कृत प्रति में 'पुणरुवं' पाठ है जिसकी संस्कृत में 'पुनरूपं' छाया है। परवश हुआ यह रह रहा चिरकाल से आकाश में। थल अनलजलतरु अनिल उपवनगहन वन गिरि गुफा में।।२१।। पुद्गल सभी भक्षण किये उपलब्ध हैं जो लोक में। बह बार भक्षण किये पर तृप्ति मिली न रंच भी।।२२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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