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________________ १३८ अष्टपाहुड तपश्चरणादिक करके स्वर्ग में देव भी हुआ तो वहाँ भी विषयों का लोभी होकर मानसिक दु:ख से ही तप्तायमान हुआ।।१२।। आगे शुभभावना से रहित अशुभ भावना का निरूपण करते हैं - कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाई य। भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ ।।१३।। कांदीत्यादी: पंचापि अशुभादिभावना: च । भावयित्वा द्रव्यलिंगी प्रहीणदेव: दिवि जातः ।।१३।। अर्थ – हे जीव ! तू द्रव्यलिंगी मुनि होकर कान्दपी आदि पाँच अशुभ भावना भाकर प्रहीणदेव अर्थात् नीचदेव होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। भावार्थ - कान्दी, किल्विषिकी, संमोही, दानवी और अभियोगिकी - ये पाँच अशुभ भावना हैं। निर्ग्रन्थ मुनि होकर सम्यक्त्व भावना बिना इन अशुभ भावनाओं को भावे तब किल्विष आदि नीच देव होकर मानसिक दु:ख को प्राप्त होता है ।।१३।। आगे द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होते हैं, उनको कहते हैं - पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ। भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ।।१४।। पार्श्वस्थभावना: अनादिकालं अनेकवारान् । भावयित्वा दुःखं प्राप्त: कुभावनाभावबीजैः ।।१४।। अर्थ – हे जीव ! तू पार्श्वस्थ भावना से अनादिकाल से लेकर अनन्तबार भाकर दुःख को प्राप्त हुआ। किससे दु:ख पाया ? कुभावना अर्थात् खोटी भावना, उसका भाव - वे ही हुए दुःख के बीज, उनसे दुःख पाया। भावार्थ - जो मुनि कहलावे और वस्तिका बांधकर आजीविका करे उसे पार्श्वस्थ वेषधारी कहते हैं। जो कषायी होकर व्रतादिक से भ्रष्ट रहे, संघ का अविनय करे इसप्रकार के वेषधारी को पंचविध कांदर्पि आदि भावना भा अशुभतम । मुनि द्रव्यलिंगीदेव हों किल्विषिक आदिक अशुभतम ।।१३।। पार्श्वस्थ आदि कुभावनायें भवदुःखों की बीज जो। भाकर उन्हें दुख विविध पाये विविध बार अनादि से ।।१४।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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