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________________ भावपाहुड १३५ अर्थ – हे सत्पुरुष ! अनादिकाल से लगाकर इस अनन्त संसार में तूने भावरहित निर्ग्रन्थरूप बहुत बार ग्रहण किये और छोड़े। भावार्थ - भाव जो निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के बिना बाह्य निर्ग्रन्थरूप द्रव्यलिंग संसार में अनन्तकाल से लगाकर बहुत बार धारण किये और छोड़े तो भी कुछ सिद्धि न हुई । चारों गतियों में भ्रमण ही करता रहा ।।७।। वही कहते हैं - भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए। पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव ।।८।। भीषणनरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेवमनुष्यगत्योः। प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावनां जीव! ।।८।। अर्थ – हे जीव ! तूने भीषण (भयंकर) नरकगति तथा तिर्यंचगति में और कुदेव कुमनुष्यगति में तीव्र दुःख पाये हैं, अत: अब तू जिनभावना अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना भा, इससे तेरे संसार का भ्रमण मिटेगा। भावार्थ - आत्मा की भावना बिना चार गति के दु:ख अनादि काल से संसार में प्राप्त किये, इसलिए अब हे जीव ! तू जिनेश्वरदेव का शरण ले और शुद्धस्वरूप का बारबार भावनारूप अभ्यास कर; इससे संसार के भ्रमण से रहित मोक्ष को प्राप्त करेगा, यह उपदेश है ।।८।। आगे चार गति के दुःखों को विशेषरूप से कहते हैं, पहिले नरकगति के दु:खों को कहते हैं सत्तसु णरयावासे दारुणभीमाई असहणीयाई। भुत्ताई सुइरकालं दु:क्खाई णिरंतरं अहियं ।।९।। 'सप्तसु नरकावासेषु दारुणभीषणानि असहनीयानि । भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरंतरं सोढानि' ।।९।। १. मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘सप्तसु नरकावासे' ऐसा पाठ है। २. मुद्रित संस्कृत प्रति में 'स्वहित' ऐसा पाठ है। 'सहिय' इसकी छाया में। भीषण नरक तिर्यंच नर अर देवगति में भ्रमण कर। पाये अनन्ते दुःख अब भावो जिनेश्वर भावना ।।८।। इन सात नरकों में सतत चिरकाल तक हे आत्मन् । दारुण भयंकर अर असह्य महान दुःख तूने सहे ।।९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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