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________________ ११७ बोधपाहुड करने में लाभ नहीं है। जिसमें बहुत लाभ हो वही काम करना योग्य है। दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित ही है ।। ४६ ।। आगे फिर कहते हैं - सत्तूमित्ते यसमा पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ४७ ।। शत्रौ मित्रे च समा प्रशंसानिन्दाऽलब्धिलब्धिसमा । तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।। ४७ ।। अर्थ - जिसमें शत्रु-मित्र में समभाव है, प्रशंसा - निन्दा में, लाभ-अलाभ में और तृणकंचन में समभाव है । इसप्रकार प्रव्रज्या कही है। भावार्थ - जैनदीक्षा में राग-द्वेष का अभाव है। शत्रु-मित्र, निन्दा - प्रशंसा, लाभ-अलाभ और तृण-कंचन में समभाव है। जैनमुनियों की दीक्षा इसप्रकार ही होती है ।। ४७ ।। आगे फिर कहते हैं - उत्तममज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खा । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ४८ ।। उत्तममध्यगेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा । सर्वत्र गृहीतपिंडा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।। ४८ । । अर्थ - उत्तम गेह अर्थात् शोभा सहित राजभवनादि और मध्यमगेह अर्थात् जिसमें अपेक्षा नहीं है । शोभारहित सामान्य लोगों का घर इनमें तथा दरिद्र-धनवान् इनमें निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित हैं, सब ही योग्य जगह पर आहार ग्रहण किया जाता है। इसप्रकार प्रव्रज्या कही है। भावार्थ – मुनि दीक्षासहित होते हैं और आहार लेने को जाते हैं, तब इसप्रकार विचार नहीं करते हैं कि बड़े घर जाना अथवा छोटे घर वा दरिद्री के घर या धनवान के घर जाना इसप्रकार वांछारहित निर्दोष आहार की योग्यता हो वहाँ सब ही जगह से योग्य आहार ले लेते हैं, इसप्रकार प्रव्रज्या जिनवर कही सम्पन्न हों असंपन्न हों । उत्तम मध्यम घरों में आहार लें समभाव से ।।४८ ।। निर्ग्रन्थ है निःसंग है निर्मान है नीराग है । निर्दोष है निरआश है जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।। ४९ । ।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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