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________________ बोधपाहुड ११५ स्वाध्यायध्यानयुक्ता: मुनिवरवृषभाः नीच्छन्ति ।।४४।। अर्थ – सूना धर, वृक्ष का मूल, कोटर, उद्यान, वन, श्मशानभूमि, पर्वत की गुफा, पर्वत का शिखर, भयानक वन और वस्तिका - इनमें दीक्षासहित मुनि ठहरें। ये दीक्षायोग्य स्थान हैं। स्ववशासक्त अर्थात् स्वाधीन मुनियों से आसक्त जो क्षेत्र उन क्षेत्रों में मुनि ठहरे । जहाँ से मोक्ष पधारे इसप्रकार तो तीर्थस्थान और वच, चैत्य, आलय इसप्रकार त्रिक में जो पहिले कहा गया है अर्थात् आयतन आदिक परमार्थरूप, संयमी मुनि, अरहंत, सिद्धस्वरूप उनके नाम के अक्षररूप 'मंत्र' तथा उनकी आज्ञारूप वाणी को ‘वच' कहते हैं तथा उनके आकार धातु-पाषाण की प्रतिमा स्थापन को “चैत्य' कहते हैं और वह प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जिसमें स्थापित किये जाते हैं, इसप्रकार आलय-मंदिर, यंत्र या पुस्तकरूप ऐसा वच, चैत्य तथा आलय का त्रिक है अथवा जिनभवन अर्थात् अकृत्रिम चैत्यालय मंदिर इसप्रकार आयतनादिक उनके समान ही उनका व्यवहार उसे जिनमार्ग में जिनवर देव वेध्य' अर्थात् दीक्षासहित मुनियों के ध्यान करने योग्य, चिन्तवन करने योग्य कहते हैं। जो मनिवृषभ अर्थात मनियों में प्रधान हैं, उनके कहे हए शन्यगहादिक तथा तीर्थ, नाम मंत्र, स्थापनरूप मूर्ति और उनका आलय-मंदिर, पुस्तक और अकृत्रिम जिनमन्दिर उनको 'णिइच्छंति' अर्थात् निश्चय से इष्ट करते हैं। सूने घर आदि में रहते हैं और तीर्थ आदि का ध्यान चिंतन करते हैं तथा दूसरों को वहाँ दीक्षा देते हैं। यहाँ 'णिइच्छति' का पाठान्तरणइच्छंति' इसप्रकार भी है इसका काकोक्ति द्वारा तो इसप्रकार अर्थ होता है कि “जो क्या इष्ट नहीं करते हैं ? अर्थात् करते ही हैं।” एक टिप्पणी में ऐसा अर्थ किया है कि ऐसे शून्यगृहादिक तथा तीर्थादिक स्ववशासक्त अर्थात् स्वेच्छाचारी भ्रष्टाचारियों द्वारा आसक्त हो (युक्त हो) तो वे मुनिप्रधान इष्ट न करें वहाँ न रहें। ___ कैसे हैं वे मुनिप्रधान ? पाँच महाव्रत संयुक्त हैं, पाँच इन्द्रियों को भले प्रकार जीतनेवाले हैं, निरपेक्ष हैं, किसीप्रकार की वांछा से मुनि नहीं हुए हैं, स्वाध्याय और ध्यानयुक्त हैं, कई तो शास्त्र पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं, कई धर्म-शुक्लध्यान करते हैं। ___ भावार्थ - यहाँ दीक्षायोग्य स्थान तथा दीक्षासहित दीक्षा देनेवाले मुनि का तथा उनके चिंतन योग्य व्यवहार का स्वरूप कहा है ।।४२-४३-४४ ।। परिषहजयी जितकषायी निर्ग्रन्थ है निर्मोह है। है मुक्त पापारंभ से ऐसी प्रव्रज्या जिन कही।।४५।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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