SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११३ बोधपाहुड का तीन ज्ञान और दस अतिशय सहित जन्म होता है, तब तीन लोक में आनंदमय क्षोभ होता है, देवों के बिना बजाए बाजे बजते हैं, इन्द्र का आसन कंपायमान होता है, तब इन्द्र प्रभु का जन्म हुआ जानकर स्वर्ग से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है, सर्व चार प्रकार के देव-देवी एकत्र होकर आते हैं, शची (इन्द्राणी) माता के पास जाकर गुप्तरूप से प्रभु को ले आती हैं, इन्द्र हर्षित होकर हजार नेत्रों से देखता है। __फिर सौधर्म इन्द्र, बालक शरीरी भगवान को अपनी गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरुपर्वत पर जाता है, ईशान इन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार, महेन्द्र इन्द्र चंवर ढोरते हैं, मेरु के पांडुकवन की पांडुकशिला पर सिंहासन के ऊपर प्रभु को विराजमान करते हैं, सब देव क्षीरसमुद्र में एक हजार आठ कलशों में जल लाकर देव-देवांगना गीत नृत्य वादित्र द्वारा बड़े उत्साह सहित प्रभु के मस्तक पर कलश ढारकर जन्मकल्याणक का अभिषेक करते हैं, पीछे शृंगार, वस्त्र, आभूषण पहिनाकर माता के मंदिर में लाकर माता को सौंप देते हैं, इन्द्रादिक देव अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं, कुबेर सेवा के लिए रहता है। तदनन्तर कुमार अवस्था तथा राज्य अवस्था भोगते हैं। उसमें मनोवांछित भोग भोगकर फिर कुछ वैराग्य का कारण पाकर संसार-देह-भोगों से विरक्त हो जाते हैं। तब लौकान्तिक देव आकर, वैराग्य को बढ़ानेवाली प्रभु की स्तुति करते हैं, फिर इन्द्र आकर ‘तपकल्याणक' करता है। पालकी में बैठाकर बड़े उत्सव से वन में ले जाता है, वहाँ प्रभु पवित्र शिला पर बैठकर पंचमुष्टि से लोचकर पंच महाव्रत अंगीकार करते हैं, समस्त परिग्रह का त्याग कर दिगम्बररूप धारण कर ध्यान करते हैं, उसीसमय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है। फिर कुछ समय व्यतीत होने पर तप के बल से घातिकर्म की प्रकृति ४७, अघाति कर्मप्रकृति १६, इसप्रकार त्रेसठ प्रकृति का सत्ता में से नाशकर केवलज्ञान उत्पन्न कर अनन्तचतुष्टयरूप होकर क्षुधादिक अठारह दोषों से रहित अरहंत होते हैं। फिर इन्द्र आकर समवसरण की रचना करता है सो आगमोक्त अनेक शोभासहित मणिसुवर्णमयी कोट, खाई, वेदी चारों दिशाओं में चार दरवाजे, मानस्तंभ, नाट्यशाला, वन आदि अनेक रचना करता है। उसके बीच सभामण्डप में बारह सभा, उनमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, तिर्यंच बैठते हैं। प्रभु के अनेक अतिशय प्रकट होते हैं। सभामंडप के बीच तीन पीठ पर गंधकुटी के बीच सिंहासन पर कमल के ऊपर अंतरीक्ष प्रभु विराजते हैं और आठ प्रातिहार्य युक्त होते हैं। वाणी खिरती है, उसको सुनकर गणधर द्वादशांग शास्त्र रचते हैं। ऐसे केवलज्ञानकल्याणक का उत्सव इन्द्र करता है। फिर प्रभु विहार करते हैं। उनका बड़ा उत्सव देव करते हैं। कुछ समय
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy