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________________ अष्टपाहुड १०६ उत्तर - इसप्रकार जो असाता का अत्यन्त मंद-बिल्कुल मंद अनुभाग उदय है और साता का अति तीव्र अनभाग उदय है. उसके वश से असाता कछ बाह्य कार्य करने में समर्थ नहीं है. सक्षम उदय देकर खिर जाता है तथा संक्रमणरूप होकर सातारूप हो जाता है, इसप्रकार जानना । इसप्रकार अनंत चतुष्टयसहित सर्वदोषरहित सर्वज्ञ वीतराग हो उसको नाम से अरहंत' कहते हैं ।।३०।। आगे स्थापना द्वारा अरहंत का वर्णन करते हैं - गुणठाणमग्गणेहिं य पज्जत्तीपाणजीवठाणेहिं । ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्स ॥३१॥ गुणस्थानमार्गणाभिः च पर्याप्तिप्राणजीवस्थानैः। स्थापना पंचविधैः प्रणेतव्या अर्हत्पुरुषस्य ।।३१।। अर्थ – गुणस्थान, मार्गणास्थान, पर्याप्ति, प्राण और जीवस्थान इन पाँच प्रकार से अरहंत पुरुष की स्थापना प्राप्त करना अथवा उसको प्रणाम करना चाहिए। भावार्थ - स्थापनानिक्षेप में काष्ठपाषाणादिक में संकल्प करना कहा है सो यहाँ प्रधान नहीं है। यहाँ निश्चय की प्रधानता से कथन है। यहाँ गुणस्थानादिक से अरहंत का स्थापन कहा है।।३।। आगे विशेष कहते हैं - तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो। चउतीस अइसयगुणा होंति हु तस्सट्ट पडिहारा ।।३२।। त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिकः भवति अर्हन् । चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवंति स्फुटं तस्याष्टप्रातिहार्या ।।३२।। अर्थ – गुणस्थान चौदह कहे हैं, उसमें सयोगकेवली नाम तेरहवाँ गुणस्थान है। उसमें योगों की प्रवृत्तिसहित केवलज्ञानसहित सयोगकेवली अरंहत होता है। उनके चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्य होते हैं, ऐसे तो गुणस्थान द्वारा स्थापना अरहंत' कहलाते हैं। गणथान मार्गणथान जीवस्थान अर पर्याप्ति से । और प्राणों से करो अरहंत की स्थापना ।।३१।। आठ प्रातिहार्य अरु चौंतीस अतिशय युक्त हों। सयोगकेवलि तेरवें गुणस्थान में अरहंत हों।।३२।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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