SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ आगति व सम्पदा - ऐसे ये भाव अरहंत को बतलाते हैं । भावार्थ - अरहंत शब्द से यद्यपि सामान्य अपेक्षा केवलज्ञानी हों वे सब ही अरहंत हैं तो भी यहाँ तीर्थंकर पद की प्रधानता से कथन करते हैं, इसलिए नामादिक से बतलाना कहा है । लोकव्यवहार में नाम आदि की प्रवृत्ति इसप्रकार है कि जो जिस वस्तु का नाम हो वैसा गुण न हो उसको नामनिक्षेप कहते हैं। जिस वस्तु को जैसा आकार हो उस आकार की काष्ठ-पाषाणादिक की मूर्ति बनाकर उसका संकल्प करे उसको स्थापना कहते हैं। जिस वस्तु की पहली अवस्था हो उस ही को आगे की अवस्था प्रधान करके कहे उसको द्रव्य कहते हैं। वर्तमान में जो अवस्था हो उसको भाव कहते हैं। ऐसे चार निक्षेप की प्रवृत्ति है। उसका कथन शास्त्र में भी लोगों को समझाने के लिए किया है। जो निक्षेप विधान द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य को भाव न समझे, नाम को नाम समझे, स्थापना को स्थापना समझे, द्रव्य को द्रव्य समझे, भाव को भाव समझे, अन्य को अन्य समझे, अन्यथा तो ‘व्यभिचार' नाम का दोष आता है । उसे दूर करने के लिए लोगों को यथार्थ समझाने के लिए शास्त्र में कथन है, किन्तु यहाँ वैसा निक्षेप का कथन नहीं समझना । यहाँ तो निश्चयनय की प्रधानता से कथन है सो जैसा अरहंत का नाम है वैसा ही गुण सहित नाम जानना, स्थापना जैसी उसकी देह सहित मूर्ति है वही स्थापना जानना, जैसा उसका द्रव्य है, वैसा द्रव्य जानना और जैसा उसका भाव है वैसा ही भाव जानना ।। २८ ।। इसप्रकार ही कथन आगे करते हैं। प्रथम ही नाम को प्रधान करके कहते हैं - अष्टपाहुड दंसण अनंत णाणे मोक्खो णट्ठट्ठकम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होइ ।। २९ ।। दर्शनं अनंतं ज्ञानं मोक्षः नष्टानष्टकर्मबंधेन । निरुपमगुणमारूढः अर्हन् ईदृशो भवति ।। २९।। अर्थ - जिसके दर्शन और ज्ञान ये तो अनन्त हैं, घातिकर्म के नाश से सब ज्ञेय पदार्थों को देखना व जानना है, अष्ट कर्मों का बंध नष्ट होने से मोक्ष है । यहाँ सत्त्व की और उदय की विवक्षा न लेना, केवली के आठों ही कर्म का बंध नहीं है । यद्यपि साता वेदनीय का आस्रव मात्र बंध सिद्धान्त में कहा है तथापि स्थिति अनुभागरूप बंध नहीं है, इसलिए अबंधतुल्य ही है । इसप्रकार आठों ही कर्मबंध के अभाव की अपेक्षा भावमोक्ष कहलाता है और उपमारहित गुणों से आरूढ़ १. सटीक सं. प्रति में 'दर्शने अनंत ज्ञाने' ऐसा सप्तमी अंत आठ है। अनंत दर्शन ज्ञानयुत आरूढ़ अनुपम गुणों में । कर्माष्ट बंधन मुक्त जो वे ही अरे अरिहंत हैं ।। २९ ।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy